उत्तराखंड में हिमस्खलन ने एक बार फिर तबाही मचाई है। इस पहाड़ी क्षेत्र में बर्फ की चट्टानें खिसकना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कुछ समय के अंतराल में बार-बार होने वाली ऐसी घटनाएं डराती हैं। लगभग हर वर्ष होने वाले हिमस्खलन में कई लोगों की मौत हो जाती है। पर्वतारोहियों से लेकर आम नागरिक और निर्माण कार्यों में लगे मजदूर आए दिन हिमस्खलन की चपेट में आते रहे हैं। उन्हें बचाने का हरसंभव प्रयास होता है, लेकिन लापता हुए लोगों का कई बार पता नहीं चल पाता।
हिमालयी क्षेत्र में खिसकती रहती हैं बर्फ की चट्टानें
हालांकि हिमालयी क्षेत्र में बर्फ की भारी चट्टानें खिसकने की घटनाएं होती रही हैं, मगर पिछले एक दशक में इसकी आवृत्ति जिस तरह बढ़ी है, उस पर अब सोचने की आवश्यकता है। गौरतलब है कि बदरीनाथ से तीन किलोमीटर दूर माणा गांव में हिमस्खलन से मची तबाही से लोग एक बार फिर सहम उठे हैं। खबरों के मुताबिक, शुक्रवार को हुई घटना में सत्तावन लोग बर्फ के नीचे दब गए थे। इनमें से ज्यादातर लोगों को किसी तरह बाहर निकाल लिया गया। यों हिमस्खलन की चेतावनी एक दिन पहले ही जारी कर देने की बात कही गई है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह सूचना उन निर्माण मजदूरों तक नहीं पहुंच पाई या फिर किसी स्तर पर इस मामले में लापरवाही बरती गई। अन्यथा हादसे में लोगों को जोखिम से बचाया जा सकता था।
दिल्ली में बारिश, पहाड़ों पर बर्फबारी और सर्द हवाएं… मार्च के पहले दिन ही मौसम का यू टर्न
दरअसल, पिछले कुछ समय से हिमस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी की एक वजह प्राकृतिक है, तो दूसरी वजह असंतुलित विकास और पर्यावरण की उपेक्षा। उपभोक्तावादी संस्कृति को प्रोत्साहित कर और उसे अपना कर जिस तरह वैश्विक तापमान को बढ़ाया गया है, उससे न केवल जल-जंगल और जमीन पर प्रभाव पड़ा है, बल्कि समुद्र तथा पहाड़ भी इससे अछूते नहीं रहे। प्रकृति की प्रतिक्रिया हम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख सकते हैं। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ और कहीं जंगलों में आग से लेकर हिमस्खलन की बढ़ती घटनाएं इसी का संकेत दे रही हैं।
हिमस्खलन जैसी घटनाओं के प्रति सावधानी और जनजागरूकता से कुछ हद तक जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता है। मगर पहाड़ी इलाकों में जिस तरह मनुष्यों का बेतहाशा हस्तक्षेप बढ़ा है, उसमें सड़क से लेकर अन्य अनियोजित निर्माण कार्यों के गंभीर नतीजे अब सामने आ रहे हैं।