प्रतियोगी परीक्षाओं में पारदर्शिता मानो संदिग्ध होती जा रही है। अक्सर पर्चाफोड़ की घटनाएं उजागर हो जाती हैं। इसके चलते परीक्षाएं निरस्त करनी पड़ती हैं। परीक्षार्थियों का सारा श्रम बेकार जाता है। दुबारा परीक्षाएं आयोजित कराने में सरकारों का दम फूलने लगता है। जहां परीक्षाएं बिना पर्चाफोड़ के संपन्न हो भी जाती हैं, उनमें उत्तर पुस्तिकाओं में हेराफेरी कर चहेते लोगों को नियुक्त कर देने के आरोप लगने लगते हैं। ऐसे में प्रयागराज में छात्रों के आक्रोश को समझा जा सकता है।
आयोग दे रहा छात्रों को आश्वासन
उत्तर प्रदेश राज्य सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा दो पालियों में कराने के फैसले से छात्र नाराज हैं। हालांकि आयोग लगातार आश्वासन दे रहा है कि उनके साथ कोई अन्याय नहीं होगा, मगर छात्रों का उस पर भरोसा नहीं बन पा रहा है। उनका तर्क है कि अगर पहली पाली में प्रश्नपत्र सरल आया और दूसरी पाली में कठिन आ गया, तो इससे दूसरी पाली के अभ्यर्थियों को नुकसान उठाना पड़ेगा। मगर आयोग इसके लिए मानकीकरण की व्यवस्था को व्यावहारिक बता रहा है। यह बात किसी के गले नहीं उतर रही कि आखिर राज्य लोकसेवा आयोग करीब सात लाख अभ्यर्थियों की परीक्षा एक पाली में करा पाने में असमर्थ क्यों है।
दरअसल, ताजा आक्रोश पारदर्शिता न होने की वजह से है। पिछले सात वर्षों में करीब सत्तर परीक्षाओं में पर्चाफोड़ की शिकायतें आ चुकी हैं। पिछले वर्ष हुई राज्य सेवा आयोग की परीक्षा भी पर्चाफोड़ के चलते रद्द करनी पड़ी, जो अब तक नहीं कराई जा सकी है। अपराध मिटाने और सुशासन का दम भरने वाली उत्तर प्रदेश सरकार अब तक प्रतियोगी परीक्षाओं में पारदर्शिता नहीं ला पाई है। इससे लाखों युवाओं के सपनों पर पानी फिर जाता है।
परीक्षा प्रणाली में ऐसे प्रयोगों करने से करना चाहिए परहेज
सवाल यह भी उठता रहा है कि लोकसेवा की परीक्षाओं में गणित और विज्ञान जैसे विषयों में विद्यार्थी अधिक अंक अर्जित कर अच्छे पद प्राप्त कर लेते हैं, जबकि मानविकी विषयों के छात्र पिछड़ जाते हैं। ऐसे में दो पालियों में परीक्षा करा कर मानकीकरण के जरिए न्याय का तर्क भला छात्रों के गले कैसे उतरेगा। जिन परिस्थितियों में छात्र मेहनत करके परीक्षा की तैयारी करते हैं, अगर सरकार को उसकी फिक्र होती, तो परीक्षा प्रणाली में ऐसे प्रयोगों से परहेज करती।