उत्तर प्रदेश में लगातार बारिश से कई नदियां उफन रही हैं। बड़ी संख्या में लोग बेघर हो गए हैं। कृषि भूमि जलमग्न होने से फसलें बर्बाद हो गई हैं। कई गांव डूबे हुए हैं, तो निचले शहरी इलाकों में भी खतरा बढ़ रहा है। दरअसल, राज्य में स्थिति उस समय गंभीर हो गई, जब गंगा, यमुना और शारदा जैसी प्रमुख नदियां खतरे के निशान से ऊपर बहने लगीं।
नतीजा खेत-खलिहानों से लेकर मुख्य सड़कों पर पानी बहने लगा। इस समय बड़ी संख्या में लोगों को सुरक्षित जगहों पर शरण लेनी पड़ी है। लोगों के सामने रोजमर्रा की जरूरतों के साथ रोजी-रोटी का संकट भी पैदा हो गया है। ऐसे में लोगों के सामने खड़ी त्रासदी का बस अंदाज लगाया जा सकता है।
मंत्री की टिप्पणी अतार्किक और गैर जिम्मेदाराना है
इसके मद्देनजर राहत कार्य तेज करने और नागरिकों को ढांढ़स बंधाने के बजाय अगर कोई जनप्रतिनिधि ही समस्या को हल्के तौर पर लेने की नसीहत दे तो हैरानी होती है। दरअसल, बाढ़ प्रभावित इलाके का दौरा कर रहे उत्तर प्रदेश सरकार के मत्स्य पालन मंत्री संजय निषाद ने बाढ़ पीड़ितों के प्रति सहानुभूति दिखाने के बजाय जिस तरह की टिप्पणी की, वह न केवल अतार्किक है, बल्कि गैर-जिम्मेदाराना भी है।
सवाल है कि अगर जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग भी संकट के समय समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो बाकी लोगों से भी क्या उम्मीद बचेगी? मंत्री को यह नहीं भूलना चाहिए कि बाढ़ एक आपदा है। इससे प्रभावित लोगों की मजबूरियां वे समझ रहे होते, तो यह कभी नहीं कहते कि मोक्ष की तलाश में लोग दूर-दूर से गंगा में पवित्र स्नान करने आते हैं और यहां गंगा मैया आपके दरवाजे पर हैं। यह एक सच्चाई है कि हर वर्ष बाढ़ आने पर लाखों नागरिकों का जीवन खतरे में पड़ जाता है।
जन-जीवन ठहर जाता है। बड़ी संख्या में लोग बेघर और बेरोजगार हो जाते हैं। ऐसे में राहत का मरहम लगाने के बजाय हल्की-फुल्की बात करना असंवेदशीलता ही मानी जाएगी। मामले के तूल पकड़ने के बाद अपनी टिप्पणी को लेकर मंत्री की जो भी दलील हो, लेकिन एक त्रासद समस्या के संदर्भ में अगर एक जिम्मेदार पद पर रहते हुए वे इस तरह की संवेदनहीन और हल्की बातें करेंगे तो उनके विवेक पर सवाल उठेगा।