रहस्यमय परिस्थितियों में गायब हो जाने वाले बच्चों का सवाल किसी रपट के जरिए सामने आने के बाद सुर्खियों में आता है, पर कुछ समय बाद फिर सब पहले की तरह शांत हो जाता है। विडंबना यह है कि इस समस्या की गंभीरता के मद्देनजर सरकारों की ओर से हर स्तर पर तंत्र को सक्रिय करने और बच्चों की तस्करी पर काबू पाने का भरोसा दिया जाता है, लेकिन कुछ समय बाद आने वाली कोई रिपोर्ट यही बताती है कि इस मोर्चे पर पर्याप्त संवेदनशील तरीके से काम नहीं किया गया।

गौरतलब है कि बच्चों की समस्याओं पर काम करने वाली एक संस्था की ओर से रविवार को जारी रिपोर्ट में फिर से बाल तस्करी की चिंताजनक तस्वीर सामने रखी गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 से 2022 के बीच देश भर में बहुत सारे बच्चे गायब हुए, लेकिन इसी दौरान उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश में बच्चों की तस्करी के सबसे अधिक मामले सामने आए। हालांकि देश की राजधानी दिल्ली में भी हालत बेहद अफसोसनाक रही, जहां बाल तस्करी के मामलों में अड़सठ फीसद की बढ़ोतरी देखी गई।

सवाल है कि एक तरफ देश भर में राज्य सरकारें हर स्तर पर बेहतर सुशासन, नागरिकों की सुरक्षा और सुविधा आदि का आश्वासन देती रहती हैं, लेकिन क्या उन पर उतनी ही संवेदनशीलता से अमल करने को लेकर भी वे गंभीर रहती हैं? आखिर बच्चों की तस्करी के अमानवीय कारोबार में लगे लोगों या गिरोहों को किसी बच्चे को गायब करने या खोए हुए बच्चों को उठा कर कहीं बेच देने की हिम्मत कहां से आती है?

अगर अपराध के खिलाफ तंत्र की सक्रियता और सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम हों तो क्या बाल तस्करों को इतने व्यापक पैमाने पर अपनी साजिशों को अंजाम देने का मौका मिल पाएगा? विडंबना है कि शहरों-महानगरों में चल रही कुछ औद्योगिक इकाइयों में कई बार तेरह से अठारह वर्ष के बीच के बच्चों से काम कराया जाता है।

लेकिन सभी कारखानों और उसकी समूची संरचना को जांच के दायरे में मानने वाले सरकारी तंत्र को बाल मजदूरी और तस्करी के पहलू पर गंभीरता से काम करने की जरूरत नहीं लगती है! आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, न केवल जयपुर शहर को देश में बाल तस्करी के मुख्य केंद्र के रूप में दर्ज किया गया, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में भी कई स्थानों को इसी कोटि में पाया गया। जबकि माना जाता है कि मुख्य शहरों में कानून-व्यवस्था देश के बाकी हिस्सों के मुकाबले ज्यादा बेहतर होगी और आपराधिक गतिविधियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई भी होती होगी!

हालांकि बच्चों के जीवन पर जोखिम के मसले पर काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों के सहयोग से इसी अवधि में साढ़े तेरह हजार से ज्यादा बच्चों को बचाया भी गया। फिर सरकार की ओर से भी कई सकारात्मक कदम उठाए गए। लेकिन एक पहलू यह भी है कि एक ओर पुलिस-प्रशासन की चौकसी और आधुनिक तकनीकी के उपयोग के जरिए हर स्तर पर आपराधिक गतिविधियों पर निगरानी रखने और लगाम लगाने का दावा किया जाता है, दूसरी ओर जघन्य अपराध तक बदस्तूर जारी रहते हैं।

इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है कि जो बच्चे लापता हो जाते हैं, उनके घर में मां-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों की हालत क्या होती होगी! इससे इतर, गायब हो गए बच्चों को किस त्रासदी से गुजरना पड़ता होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। खासतौर पर जो बच्चियां तस्करों के हाथ लग जाती हैं, उन्हें घरेलू काम में लगाने से लेकर यौन शोषण और देह-व्यापार के भयावह दलदल में भी धकेल दिया जाता है।