सत्रह दलों के करीब तीस बड़े नेता बैठक में शामिल हुए और एक सुर में साथ मिल कर चुनाव लड़ने का संकल्प दोहराया। यह निश्चित रूप से नीतीश कुमार की महीनों की मेहनत का सुफल था। इससे उम्मीद जताई जा रही है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी चुनौती मिलेगी।
मगर आम चुनाव में अभी वक्त है और इस बीच विपक्षी दलों का यह सूत्र कितना टिकाऊ साबित हो पाता है, देखने की बात होगी। हालांकि इसमें सभी विपक्षी दलों ने कांग्रेस की अगुआई स्वीकार कर ली है, मगर यही सबसे नाजुक बिंदु है, जहां से दिक्कतें शुरू हो सकती हैं। आम आदमी पार्टी ने तो अपनी शर्त पर दबाव बनाना भी शुरू कर दिया है।
उसने स्पष्ट कहा है कि कांग्रेस दिल्ली सरकार संबंधी केंद्र के अध्यादेश पर उसका साथ दे, नहीं तो वह भी गठबंधन को लेकर विचार करने पर विवश होगी। आम आदमी पार्टी जिस तरह की आक्रामक राजनीति करती है, वह ढंग कांग्रेस का नहीं है। कांग्रेस अध्यादेश के समर्थन में कभी नहीं रही, मगर वह उसे लेकर सड़क पर नहीं उतरना चाहती है। वह सदन का मामला है और वह उसे सदन में उठाएगी, ऐसा उसने स्पष्ट भी कर दिया है। मगर आम आदमी पार्टी इसे लेकर कितने धैर्य का परिचय देती है, देखने की बात है।
दरअसल, विपक्षी दलों की एकजुटता का प्रयास पहली बार नहीं हुआ है। पिछली लोकसभा चुनाव के वक्त भी हुआ था, मगर सिरे नहीं चढ़ सका। भाजपा ने कुछ अधिक सीटों के साथ ही वापसी की थी। नए बने गठबंधन में ज्यादातर क्षेत्रीय दल हैं और सबके अपने क्षेत्रीय स्वार्थ, समीकरण और मुद्दे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में सबकी लड़ाई भाजपा के अलावा कांग्रेस से भी है।
विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के विरोध में ही चुनाव लड़ते रहे हैं। इस तरह अगर सभी एकजुट होकर केवल भाजपा के विरोध में उतरते हैं, तो उन्हें कांग्रेस के साथ अपनी सीटों का बंटवारा करना पड़ेगा, जिसके लिए उनकी पार्टी को खासा मंथन और विरोध से होकर गुजरना पड़ेगा। मसलन, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस के लिए बहुत कम जगह छोड़ना चाहेंगी।
इसी तरह पंजाब में आम आदमी पार्टी की मुख्य लड़ाई ही कांग्रेस से है, इसलिए सीटों के बंटवारे पर किस तरह दोनों के साथ सहमति बनती है, कहना मुश्किल है। ऐसी ही मुश्किलें समाजवादी पार्टी आदि दूसरे दलों के साथ भी हैं।
शुरुआती चरण में ही जिस तरह आम आदमी पार्टी के भीतर कांग्रेस को लेकर हिचक देखी जा रही थी, वह अभी दूर नहीं हुई है। दरअसल, दिल्ली में आम आदमी पार्टी आई ही थी कांग्रेस का विरोध करके। वह टीस अभी कांग्रेस में भी बनी हुई है। यही वजह है कि बहुत सारे मामलों में न केवल भाजपा, बल्कि कांग्रेस की तरफ से भी उसे विरोध का सामना करना पड़ता है।
दिल्ली सरकार संबंधी अध्यादेश पर कांग्रेस की चुप्पी भी उसी का नतीजा है। फिर आम आदमी पार्टी को यह भी लगता है कि अगर उसने कांग्रेस से किसी भी प्रकार का गठजोड़ कर लिया, तो उसका जनाधार कमजोर हो सकता है। इसलिए वह नए गठबंधन में शामिल होने को लेकर पूरी तरह दृढ़संकल्प नजर नहीं आ रही है। मगर उसके अलग रहने से भी गठबंधन पर बहुत असर इसलिए नहीं माना जा रहा, क्योंकि लोकसभा चुनाव में उसका प्रभाव क्षेत्र बहुत छोटा है।