लश्कर-ए-तैयबा के एक खास सरगना अबु कासिम का मारा जाना भारतीय सुरक्षा बलों की एक बड़ी सफलता है। घाटी में लश्कर का शीर्ष कमांडर कासिम पिछले पांच साल से सक्रिय था। अगस्त में ऊधमपुर में सीमा सुरक्षा बल के काफिले पर और उससे दस दिन पहले गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले की भी साजिश उसी ने रची थी। इसके अलावा कासिम ने 2013 में सेना के एक काफिले को निशाना बनाया था जिसमें आठ सैनिकों की जान चली गई थी। दरअसल, पिछले पांच साल में जम्मू-कश्मीर में जो भी आतंकी हमले हुए, कासिम उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल था।

उसकी सक्रियता के कारण केंद्र और जम्मू-कश्मीर, दोनों सरकारें समान रूप से चिंतित थीं। राज्य की पुलिस ने कासिम के सिर पर दस लाख रुपए का इनाम घोषित कर रखा था। इतनी ही राशि का इनाम एनआइए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी की तरफ से भी उसकी मौत पर या उसका सुराग देने पर घोषित था। उसकी मौत ने भी घाटी में उसकी सक्रियता साबित कर दी। श्रीनगर से अस्सी किलोमीटर दूर खांदीपुरा गांव में एक घर में कासिम के छिपे होने की खुफिया जानकारी के आधार पर सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बल के एक संयुक्त दस्ते ने गुरुवार तड़के वहां छापा मारा और उसे मार गिराया। कासिम पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर का रहने वाला था। जाहिर है, यह आतंकवाद के तार पाकिस्तान से जुड़े होने का एक और प्रमाण है। इससे पहले, गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले की बाबत पकड़े गए एक हमलावर के पाकिस्तानी होने की बात सामने आ चुकी है। इस तरह के और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं।

लश्कर-ए-तैयबा का अड्डा पाकिस्तान में होने की बात भी एक बार फिर साबित हुई है। फिर भी, तमाम सबूतों के बावजूद, पाकिस्तान अपने यहां आतंकी ढांचा होने का तथ्य सिरे से खारिज करता रहा है। अगर किसी संदर्भ में स्वीकार करना ही पड़ा, तो वह इस दलील का दामन थाम लेता है कि ये गैर-राजकीय तत्त्व हैं यानी इनसे वहां की सरकार या राज्य-तंत्र का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने पिछले दिनों कबूल किया कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में उनका हाथ रहा है। कश्मीर में हमलों के लिए लश्कर के आतंकियों को प्रशिक्षण दिया गया।

क्या मुशर्रफ ने यह खुलासा इसलिए किया कि वे अपने मुल्क की सियासत में एकदम अलग-थलग पड़ चुके हैं और ‘कश्मीर कार्ड’ खेलना चाहते हैं? जो हो, वे यह खुलासा न करते तब भी दुनिया जानती है कि उनके अलावा दूसरे पाकिस्तानी शासकों के कार्यकाल में भी लश्कर-ए-तैयबा, हक्कानी गुट और तालिबान को मदद मिलती रही। अलबत्ता अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसे अपेक्षित गंभीरता से नहीं लिया। विडंबना यह है कि आतंकवाद के खिलाफ हर अंतरराष्ट्रीय मंच से दोहराए जाने वाले साझा संकल्पों के बावजूद कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है जो मुशर्रफ के खुलासे के मद््देनजर कार्रवाई की पहल कर सके।

इससे इस तरह की घोषणाओं का खोखलापन ही जाहिर होता है। मुशर्रफ ने यह भी माना कि आतंकवाद के कारण अब उनके देश को भी हिंसा और अशांति रूप में कीमत चुकानी पड़ रही है। पर इस नतीजे का अनुमान मुशर्रफ बहुत पहले कर सकते थे। समस्या यह है कि मुशर्रफ रहे हों, या पाकिस्तान के दूसरे हुक्मरान, वे आतंकवाद का रणनीतिक इस्तोमल करने का लोभ कभी छोड़ नहीं पाए, भले यह उनके मुल्क के लिए अंतत: आत्मघाती साबित हो।

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