कई बार अदालतों के समक्ष कानूनी प्रावधानों के बरक्स नैतिक तकाजे बड़े होकर खड़े हो जाते हैं। संविधान व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार और निर्णय की स्वतंत्रता प्रदान करता है। मगर इसमें अगर कोई ऐसा पक्ष उपस्थित हो जाए, जिसकी पैरवी करने वाला कोई नहीं है, तो उसके अधिकारों की रक्षा का दायित्व आखिरकार अदालत पर आ जाता है।
ऐसे में अदालत के लिए व्यक्ति के निर्णय की स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं रह जाता। यही हुआ, जब एक महिला ने सर्वोच्च न्यायालय से अपने छब्बीस हफ्ते का गर्भ हटाने की इजाजत मांगी। हालांकि कानून के मुताबिक चौबीस हफ्ते से अधिक समय के भ्रूण के गर्भपात की इजाजत नहीं दी जा सकती।
वह ऐसी स्थिति में दी जाती है, जब महिला बलात्कार पीड़िता हो या गर्भ की वजह से उसकी जान को खतरा हो। ताजा मामले में जिस महिला ने गर्भपात की इजाजत मांगी, उसने दलील दी थी कि वह मानसिक और आर्थिक रूप से परेशान है। वह बच्चे की परवरिश नहीं कर सकती। उसके वकील ने तर्क दिया कि वह इसकी वजह से दो बार खुदकुशी की कोशिश भी कर चुकी है। कानून के मुताबिक यह उस महिला की स्वेच्छा का सवाल है कि बच्चा पैदा करे या न करे।
महिला की दलीलों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने पहले उसे गर्भपात की इजाजत दे दी थी। मगर जब चिकित्सकों ने जांच की, तो पाया कि भ्रूण सांसें ले रहा और स्वस्थ है। गर्भपात का अर्थ है कि भ्रूण की सांसें रोक दी जाएं। अस्पताल की रिपोर्ट को देखते हुए अदालत ने अपना फैसला पलट दिया। मगर महिला का तर्क अपनी जगह कायम रहा।
इस पर तीन जजों की पीठ में विचार किया गया। प्रधान न्यायाधीश ने महिला के वकील से पूछा कि अदालत एक जीवित भ्रूण की हत्या का आदेश कैसे दे दे। आखिर अजन्मे को भी जीवन का अधिकार है। उसकी पैरवी करने वाला यहां कोई नहीं है, इसका मतलब यह नहीं कि इससे उसके अधिकार समाप्त हो जाते हैं।
आखिर महिला ने जब इतने समय तक अपने गर्भ में भ्रूण को पाला, तो कुछ हफ्ते और पालने में क्या हर्ज है। सात माह के बच्चे को गर्भ से बाहर निकालने का अर्थ है कि मां और शिशु दोनों की सेहत को खतरा पैदा हो सकता है। पैदा होने के बाद शिशु को पालने के बारे में वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है।
गर्भवती महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की एक बार फिर जांच करने को कहा गया है। इसलिए कि अब भी यह प्रश्न बना हुआ है कि महिला और गर्भस्थ शिशु में से किसके जीवन के अधिकार को तरजीह दी जाए। दुनिया के कई देशों में जीवन के अधिकार को बड़ा माना जाता है, तो कई देशों में व्यक्ति की इच्छा को बड़ा माना जाता है।
भारत में दोनों को सम्मान दिया जाता है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय इन दोनों के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश में जुटा रहा। यह अपने आप में एक अनोखा मामला है, जिसमें एक अजन्मे शिशु के अधिकारों के लिए सर्वोच्च न्यायालय को नैतिक आधार पर पक्षकार बनना पड़ा। मगर यह नजीर है उन तमाम मामलों के लिए, जिनमें व्यक्ति अपने जीवन के अधिकार को ऊपर रखता है। अजन्मे के अधिकार की रक्षा के बाद अब गर्भवती महिला के जीवन के अधिकार की रक्षा करने में अस्पताल की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होगी।