देश भर के जंगलों में जिस तरह से अतिक्रमण और खनन के साथ मानवीय हस्तक्षेप बढ़ा है, उससे बाघों का सुरक्षित पर्यावास खतरे में है। वनों की लगातार कटाई ने उनके लिए आहर की चुनौतियां भी बढ़ा दी हैं। जंगलों के भीतर सड़कों के निर्माण और कोलाहल बढ़ने से प्राकृतिक माहौल का संतुलन बिगड़ा है। नतीजा यह कि अब बाघ जंगलों से बाहर निकल रहे हैं। भोजन-पानी की तलाश में भटकते ये वन्य जीव मनुष्यों के लिए तो खतरा बने ही हैं, साथ ही उनके जीवन पर भी संकट बढ़ रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में मनुष्यों और वन्य जीवों के बीच संघर्ष की घटनाओं में इजाफा हुआ है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की ओर से जारी रपट भी इस ओर इशारा करती है, जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2021 से 2025 के दौरान देश भर में 667 बाघों की मौत हुई है। इनमें से 341 बाघों की मौत अभयारण्यों से बाहर हुई है। इस रपट ने अभयारण्यों की देखरेख में बरती जा रही लापरवाही को भी उजागर किया है।

बाघों के लिए जंगल छोटे पड़ रहे हैं।

सवाल है कि अभयारण्यों में आवाजाही के लिए बने गलियारों से बाघ और तेंदुए गांवों एवं शहरों तक कैसे पहुंच जाते हैं? क्या उनके लिए जंगल छोटे पड़ रहे हैं। क्या बाघों की निगरानी के लिए अब तक मजबूत तंत्र नहीं बन पाया है? अगर कहीं बाड़बंदी नहीं है और बाघ निर्धारित दायरे से बाहर निकलते हैं, तो समय रहते ऐसी घटनाओं का पता क्यों नहीं लगाया जाता। ड्रोन जैसी आधुनिक तकनीक के बावजूद बाघों की नियमित निगरानी क्यों संभव नहीं हो पा रही है।

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एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या जंगलों में बाघों के लिए भोजन का अभाव है? मध्य प्रदेश में दो दशकों में जिस तरह वनों की कटाई हुई है, उसका परिणाम सामने हैं। यहां चार वर्ष के भीतर अभयारण्यों से बाहर निकले नब्बे बाघों की मौत कोई साधारण घटना नहीं है। शासन व प्रशासन को बाघों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ उनकी सुरक्षा पर भी ध्यान देना होगा। यह सब आधी-अधूरी योजनाओं से नहीं, बल्कि नवोन्मेषी उपायों से ही संभव हो पाएगा।