जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर खेती-किसानी पर पड़ रहा है। हर वर्ष सर्दी, गर्मी, बरसात का चक्र असंतुलित और मिजाज कुछ उग्र रूप में दर्ज होता है। इस वर्ष भी बरसात का मौसम अपने सामान्य समय से पखवाड़ा भर बाद समाप्त होगा। यानी बरसात कुछ अधिक दिन तक रहेगी। लौटते वक्त बादल कई इलाकों में बरस कर जाएंगे।

जाहिर है, इसका प्रभाव अगली फसल पर पड़ेगा। आमतौर पर इस मौसम में धान पकने शुरू हो जाते हैं। जब तेज बारिश होती और हवा चलती है, तो फसल जमीन पर लोट जाती है। इससे धान की कटाई में मुश्किल आती और पैदावार कम हो जाती है। फिर खेतों में लंबे समय तक नमी बनी रहने से उनकी जुताई और गेहूं की बुआई में देरी होगी।

वैसे ही सर्दी का मौसम हर वर्ष कुछ छोटा होता जा रहा है, गेहूं की फसल को उचित ठंड न मिलने के कारण उनमें पर्याप्त दाने नहीं लग पाते। जल्दी गर्मी शुरू हो जाने से फसल जल्दी पक कर तैयार हो जाती है और गेहूं के दाने छोटे होने लगे हैं। इसकी वजह से उत्पादन पर बुरा असर पड़ रहा है। इस वर्ष भी मानसून के देर से लौटने के चलते धान और गेहूं दोनों फसलों पर बुरा असर पड़ने की आशंका है।

यह तेरहवीं बार होगा, जब मानसून अपने तय समय से देर से लौटेगा। दक्षिण-पश्चिमी मानसून का चक्र असंतुलित होने के कारण इस साल भी बहुत सारे इलाके सूखे की चपेट में रहे, तो कई इलाकों में बरसात तबाही लेकर आई। जहां बारिश नहीं हुई, वहां धान की फसल सूख गई और जहां अधिक पानी बरसा, वहां खेत और बाग बड़े पैमाने पर बह गए।

बहुत सारे इलाकों में बरसात देर से शुरू हुई, इसलिए धान की रोपाई समय पर नहीं हो पाई और अनुमान है कि करीब सत्रह फीसद कम धान की खेती हो पाई है। तिस पर बरसात के असंतुलित स्वभाव ने उत्पादन पर बुरा प्रभाव डाला है। इस तरह खाद्यान्न जरूरतें पूरा करने को लेकर चिंता गहराने लगी है।

भारत दुनिया का बड़ा चावल निर्यातक है, मगर इसी तरह मानसून का चक्र हर साल गड़बड़ होता रहा और बरसात अपने समय पर न होकर विलंब से आती और समाप्त होती रही, तो घरेलू जरूरतें पूरा करना भी कठिन होता जाएगा। पिछले वर्ष गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगानी पड़ी थी, इस वर्ष बासमती चावल के निर्यात को संतुलित करना पड़ा। यही स्थिति दलहनी और तिलहनी फसलों के मामले में भी है।

जलवायु परिवर्तन से पैदा संकट पर काबू पाने के लिए दुनिया के तमाम देश हर वर्ष कार्बन उत्सर्जन कम करने का संकल्प लेते हैं। मगर अभी तक वह संकल्प कागजी ही ज्यादा नजर आता है। इसे लेकर संपन्न और अधिक औद्योगिक उत्पादन करने वाले देशों की तरफ से जैसी गंभीर पहल होनी चाहिए, वैसी नहीं दिखती। इसका नतीजा यह हो रहा है कि न केवल बरसात का चक्र और स्वभाव बदला है, बल्कि गर्मी भी हर वर्ष कुछ अधिक तकलीफदेह रूप में आती है। सर्दी की अवधि सिकुड़ रही है।

जिन देशों में हर समय सर्दी और बर्फ पड़ा करती थी, उनमें अब लू चलने लगी है। इस तरह जलवायु परिवर्तन की पीड़ा पूरी दुनिया को झेलनी पड़ रही है और इसका सबसे चिंताजनक प्रभाव कृषि उत्पादन पर पड़ रहा है। मगर अफसोस कि औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने की होड़ में कुदरत को सहेजने-संभालने की चिंता कहीं नहीं दिखती।