तमाम दावों, चौकसी और कड़ाई के बावजूद जम्मू-कश्मीर में आतंकी संगठनों पर शिकंजा कसना कठिन बना हुआ है। शायद ही कोई महीना गुजरता है, जब आतंकियों और सुरक्षाबलों के बीच संघर्ष नहीं होता। राजौरी में दहशतगर्दों से मुठभेड़ में दो अधिकारियों समेत पांच सुरक्षाबलों के मारे जाने और एक के गंभीर रूप से घायल हो जाने की घटना उसी की एक कड़ी है।

सेना तलाशी अभियान में जुटी थी, तभी आतंकियों ने घात लगा कर हमला कर दिया। करीब हफ्ता भर पहले सुरक्षाबलों ने राजौरी इलाके में ही छह आतंकवादियों को मुठभेड़ में मार गिराया था। पिछले डेढ़-दो वर्षों में इस इलाके में आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं। इसी तरह की घटना दो महीने पहले भी हुई थी, जिसमें सेना और कश्मीर पुलिस के तीन अफसर तथा दो जवान शहीद हो गए थे।

दहशतगर्दों के घात लगा कर हमले करने की छिटपुट घटनाएं तो होती ही रहती हैं। ऐसे सैन्य अभियानों पर हमले और उनमें जवानों तथा अफसरों के मारे जाने की घटनाएं नए सवाल खड़े करती हैं। जिस तरह आतंकी अत्याधुनिक हथियारों और सूचना तकनीक का इस्तेमाल करने लगे हैं, वे लगातार सुरक्षाबलों की गतिविधियों पर नजर बनाए रखते हैं, उसमें उनसे पुराने तरीकों से निपटना निस्संदेह चुनौतीपूर्ण होगा।

कश्मीर घाटी से आतंकवाद खत्म करने के इरादे से पिछले नौ सालों से सघन तलाशी अभियान चलाए जा रहे हैं। आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों की पहचान कर जेलों में डाल देने के दावे किए जाते हैं। पाकिस्तान के साथ सड़क मार्ग से होने वाली तिजारत पर रोक लगने से माना जा रहा था कि सीमा पार से उन तक पहुंचने वाले हथियारों पर रोक लग गई है।

अत्याधुनिक निगरानी प्रणाली और सतत चौकसी के कारण घुसपैठ का सिलसिला काफी कम हो गया है। अलगाववादी संगठनों के बैंक खातों और उनके वित्तीय लेन-देन पर कड़ी नजर रखी जा रही है। नोटबंदी के बाद दावा किया गया था कि इससे दहशतगर्दों की कमर टूट जाएगी। मगर ये तामम दावे तब खोखले साबित हो जाते हैं, जब आतंकवादी अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं।

आए दिन मुठभेड़ में आतंकियों के मारे जाने के समाचार होते हैं, फिर भी उनकी सक्रियता में कहीं से अपेक्षित कमी नजर नहीं आ रही। वे अपनी रणनीति बदल कर कभी लक्षित हिंसा पर उतर आते हैं, तो कभी घात लगा कर सुरक्षाबलों के काफिले या उनकी छावनियों पर हमला कर देते हैं।

कश्मीर घाटी में दहशतगर्दी को उकसाने के पीछे पाकिस्तान की कोशिशें छिपी नहीं हैं। मगर घाटी में उन्हें कौन पोस रहा है और क्यों उनकी गतिविधियों पर लगाम लगाना चुनौती बना हुआ है, इसका आकलन कर उसके अनुरूप कदम न उठाए जा सकने को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। स्पष्ट है कि बिना स्थानीय समर्थन के आतंकवादियों का घाटी में लंबे समय तक टिके रह पाना संभव नहीं है।

अब तो यह भी स्पष्ट है कि आतंकी और अलगाववादी संगठनों के उकसावे पर बड़ी संख्या में कश्मीरी युवा हथियार उठाने लगे हैं। शैक्षणिक संस्थानों और दूसरे सरकारी महकमों में भी ऐसे लोगों की मौजूदगी लगातार पहचानी जा रही है, जो युवाओं को बरगलाने की कोशिश करते हैं। इन तथ्यों के मद्देनजर आतंकवाद से निपटने के लिए नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत है। दहशतगर्दों का मनोबल तभी टूटेगा या कमजोर पड़ेगा, जब उन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन मिलना बंद होगा। इसके लिए स्थानीय लोगों का भरोसा जीतना जरूरी है।