टीकाकरण की कमान एक बार फिर केंद्र ने अपने हाथ में ले ली है। और इसका पहला कदम यह है कि अब इक्कीस जून से अठारह साल से ऊपर की आबादी को टीका मुफ्त में लगेगा। टीके केंद्र ही खरीदेगा और राज्यों को देगा। इन दोनों फैसलों को कोई भी ठीक ही कहेगा। लेकिन ये फैसले देर से हुए। यही फैसले पहले हो जाते तो टीकाकरण की उपलब्धियां अब तक दिखने लगतीं। हकीकत यह है कि टीकाकरण अभियान को तरह-तरह की मुश्किलों से जूझना पड़ा है। ज्यादातर राज्य टीकों की कमी झेलते रहे।

इसका बड़ा कारण नीतिगत फैसलों को लेकर असमंजस ही रहा होगा। टीकाकरण को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल की कमी भी रही। राज्यों को केंद्र से मिलने वाले टीके का मामला हो या टीकों के दाम का सवाल, सबमें पारदर्शी नीति की कमी दिखी। टीकाकरण की नाकामी को लेकर केंद्र और राज्य एक दूसरे पर आरोप जड़ते रहे। जबकि बेहतर यही होता कि केंद्र और राज्य टीकाकरण को लेकर समन्वय की नीति पर चलते।

टीकों का संकट शुरू से ही है। फिर समय-समय पर इसका दायरा भी बढ़ाया जाता रहा। इससे हुआ यह कि टीका लगवाने वालों की तादाद बढ़ती गई, पर उसके हिसाब से टीके नहीं मिल पाए। इससे कई राज्यों में टीके लगाने का काम ठंडा पड़ गया। राज्य टीकों की मांग करते रहे। दूसरी ओर केंद्र सरकार दावा करती रही कि किस राज्य को उसने कितने टीके दिए। समस्या यह भी रही है कि सिर्फ दो ही टीका कंपनियों- सीरम इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया और भारत बायोटेक से ही टीके मिल पा रहे हैं। उत्पादन सीमित है।

इन कंपनियों के पास पहले ही से दूसरे देशों के भी आॅर्डर थे। ऐसे में भारत की जरूरत को पूरा कर पाना इनके लिए आसान नहीं था। हालांकि इस बीच कंपनियों की उत्पादन क्षमता बढ़ाई गई है। इसके लिए केंद्र ने अच्छा-खासा पैसा दिया है। रूस से भी स्पूतनिक टीके का आयात हो रहा है। देर से ही सही, अब और कंपनियां को भी टीके बनाने में लगाया गया है। देश में टीकों की कितनी जरूरत पड़ेगी और उसके हिसाब से कंपनियां कितना उत्पादन कर पाएंगी, इसका आकलन कर पाने में शुरुआती स्तर पर दरअसल सरकार नाकाम रही। इसी का नतीजा रहा कि टीकाकरण में हम लक्ष्य से काफी पिछड़ते चले गए।

नई नीति में अब टीकों की खरीद राज्य नहीं करेंगे। लेकिन मुश्किल यह है कि कई राज्य पहले ही टीकों की खरीद का अनुबंध कर चुके हैं। टीकों के दाम को लेकर कंपनियां राज्यों से जिस तरह मोलभाव करतीं दिखीं, उसे उचित नहीं कहा जा सकता। यह सरासर मजबूरी का फायदा उठाने जैसा रहा। अगर चंद कंपनियां सरकारों को ही इस तरह नचाने लगें तो यह हैरान करने वाली बात है। इससे राज्यों को आर्थिक नुकसान हुआ। सवाल है कि आखिर केंद्र ने यह जिम्मेदारी राज्यों पर डाली ही क्यों थी? अभी भी तो केंद्र राज्यों के हिस्से का पच्चीस फीसद टीका खरीद कर उन्हें देगा।

देश में बने पच्चीस फीसद टीके निजी अस्पताल खरीद रहे हैं। लेकिन निजी अस्पतालों की मनमानी किसी से छिपी नहीं है। इन पर लगाम लगाना जरूरी है। टीकों की बबार्दी की घटनाएं भी दुखद हैं। इन्हें रोकना होगा। सरकार की टीकाकरण नीति, टीकों के दाम, राज्यों को टीकों का आंवटन जैसे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह सरकार को आड़े हाथों लिया और सवाल किए, तभी केंद्र सरकार हरकत में आती दिखाई दी। बहरहाल अब तक जो भी हुआ हो, लेकिन अब केंद्र और राज्यों की पहली प्राथमिकता जल्द से जल्द टीकाकरण निपटाने की होनी चाहिए।