उपचुनाव के नतीजों को अक्सर आगामी चुनावों में मतदाताओं के रुझान का सूचक माना जाता है। इस लिहाज से देश के आठ राज्यों की बारह विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणाम सियासी दलों के लिए अहम सबक लेकर आए हैं। इन चुनावों में सात सीटों पर मिली जीत से भाजपा और उसके सहयोगी दलों में निश्चित ही उत्साह का संचार हुआ है, क्योंकि प्रधानमंत्री के शब्द उधार लें तो यह जीत ‘उत्तरी, पश्चिमी, पूर्वी, दक्षिणी सभी राज्यों में’ पसरी हुई है। इस उत्साह की एक बड़ी वजह यह भी है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक में यह जीत राजग ने तमाम पूर्वानुमानों को झुठलाते हुए समाजवादी पार्टी, जनता दल (एकी)-राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस से सीटें छीन कर हासिल की है। उधर सत्ताविरोधी रुझान को दरकिनार करते हुए मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, तेलंगाना और त्रिपुरा की एक-एक सीट पाकर क्रमश: भाजपा, शिवसेना, अकाली दल, टीआरएस और माकपा अपनी पीठ ठोंकने में लगी हैं। दरअसल, जीत के उत्साह और पराजय की निराशा से परे जाकर इन नतीजों के विश्लेषण की जरूरत है। उत्तर प्रदेश में संवेदनशील मानी जा रही मुजफ्फरनगर सीट से जीत को भाजपा 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणामों का संकेतक मान कर चल रही है।

यदि वह प्रदेश में सांप्रदायिक माहौल गरमा कर वोट बटोरने की कोशिश में है तो पड़ोस की ऐसी ही संवेदनशील देवबंद सीट पर कांग्रेस की विजय उसके उत्साह पर पानी फेरने के लिए काफी है। मुजफ्फरनगर में 2013 में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद हिंदुत्व के मुद्दे को लेकर भाजपा ने खूब अभियान चलाया था। अगर वह मौजूदा जीत को उस अभियान का प्रतिफल मानने की गलतफहमी में है तो इसी सीट से लगे देवबंद विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की विजय उसे आईना दिखाने के लिए काफी है क्योंकि देवबंद तो इस्लामी शिक्षण के एक प्रमुख केंद्र के रूप में विश्वविख्यात है। बिहार का उपचुनाव परिणाम सियासी पंडितों के लिए भी चौंकाऊ रहा है, क्योंकि करीब तीन महीने पहले ही विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज करने वाले सत्तारूढ़ महागठबंधन को हरलाखी सीट पर राजग उम्मीदवार से पराजय का स्वाद चखना पड़ा है।

इसके साथ ही पांच राज्यों में सत्तारूढ़ दलों की जीत को उनकी सरकारों के कामकाज पर मतदाताओं की मंजूरी की मुहर मान लेना अति सरलीकरण के साथ ही चुनावी समीकरणों की शुतुरमुर्गी अनदेखी करना है। कौन नहीं जानता कि आज भी तमाम प्रयासों के बावजूद हमारे देश में चुनाव धनबल-बाहुबल से अछूते नहीं हैं। उम्मीदवारों के चयन तक में तकरीबन सभी दल जातीय और सांप्रदायिक गणित को तरजीह देते हैं। चुनाव प्रचार से लेकर मतदान के दिन तक वोटों के ध्रुवीकरण और मतदाताओं को अपने पाले में खींचने के लिए तमाम अवांछित तरीके अपनाने-आजमाने के मामले में कोई राजनीतिक दल खुद के दूध से धुले होने का दावा नहीं कर सकता। ऐसे परिदृश्य में उपचुनाव नतीजों को भविष्य के लिए किन्हीं राजनीतिक दलों के पक्ष या विपक्ष में विश्लेषित कर देना हकीकत से आखें फेर कर निष्कर्ष निकालना ही कहा जाएगा। इन उपचुनावों से झांकता अगर कोई निश्चित संकेत है तो यह कि कुछ राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के बीच दिलचस्प गठबंधन देखने को मिल सकते हैं। लेकिन इन सियासी गठबंधनों से चुनावों की क्षुद्र राजनीति के कारण एक-दूसरे दल के मतदाताओं के बीच पड़ जाने वाली गांठें भी क्या कभी खुल पाएंगी?