जब किसी व्यक्ति को सुस्त देखा जाता है, तो इसका सीधा अर्थ यही लगाया जाता है कि शायद उसकी तबीयत ठीक नहीं है या फिर वह आलसी है। मगर यह इसलिए भी संभव है कि उसकी सक्रियता में कई वजहों से कमी आ रही हो और उसका कारण कोई शारीरिक बीमारी नहीं हो। हालांकि बीमारी की वजह से अगर सक्रियता में कमी आती है तो यह भी सही है कि सक्रियता में कमी से शरीर में बीमारी घर बनाती है। विडंबना यह है कि वक्त के साथ विस्तृत होते दायरे के बीच ज्यादातर लोगों की व्यस्तता तो बढ़ी है, मगर उनकी शारीरिक सक्रियता में तेजी से कमी आई है।
‘द लांसेट ग्लोबल हेल्थ’ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में यह उजागर हुआ है कि सन 2022 में भारत की सत्तावन फीसद महिलाएं शारीरिक रूप से पर्याप्त सक्रिय नहीं थीं, जबकि पुरुषों में यह दर बयालीस फीसद थी। अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि अगर मौजूदा परिपाटी जारी रही तो 2030 तक भारत में अपर्याप्त शारीरिक सक्रियता वाले वयस्कों की संख्या बढ़ कर साठ फीसद तक पहुंच जाएगी।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी देश की साठ फीसद आबादी अगर शारीरिक रूप से पर्याप्त सक्रिय नहीं रहे तो आने वाले वक्त में वहां आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से कैसी तस्वीर बनेगी। आमतौर पर अधिक आबादी वाले देशों में रोजी-रोटी का मसला इस तरह जटिल होता है कि ज्यादातर लोगों को जीवन चलाने के लिए शारीरिक रूप से जरूरत से ज्यादा सक्रिय रहना पड़ता है। सवाल है कि आखिर भारत में ऐसे हालात कैसे पैदा हो रहे हैं कि यहां इतनी बड़ी तादाद में लोग सुस्त होते जा रहे हैं!
विचित्र यह भी है कि लोगों की व्यस्तता में एक अजीब किस्म की बढ़ोतरी हुई है। ऐसे तमाम लोग हैं, जिनका आधे घंटे का कोई काम टलता रहता है, मगर रोजाना वे पांच या सात घंटे या इससे ज्यादा समय अपने स्मार्टफोन या अन्य तकनीकी संसाधनों पर, सोशल मीडिया या अन्य आभासी मंचों पर बर्बाद करते हैं। महामारी के दौरान घर से काम करने की व्यवस्था जब चलन में आई थी, उसने भी लोगों के ज्यादा शिथिल होने में भूमिका निभाई। शारीरिक सक्रियता में कमी की वजहों और नतीजों पर अगर गौर नहीं किया गया तो इन सबका समुच्चय आखिर व्यक्ति को विचार से कमजोर करेगा, शरीर को बीमार बनाएगा