जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमलों पर अंकुश लगाना चुनौती बना हुआ है। हालांकि केंद्र सरकार का दावा है कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटने के बाद दहशतगर्दी में भारी कमी आई है और आतंकी संगठन कुछ इलाकों तक सिमट कर रह गए हैं। मगर लगातार कुछ-कुछ अंतराल पर जिस तरह आतंकी घात लगा कर हमले कर रहे हैं, उससे इस दावे पर यकीन करना मुश्किल लगता है। आतंकवादी लगातार अपनी रणनीति बदलते देखे जा रहे हैं। वे कभी सशस्त्र बलों को निशाना बनाते हैं, तो कभी बाहरियों, कश्मीरी पंडितों को लक्ष्य बनाया जाता है। अब वहां जा रहे सैलानियों पर हमले हो रहे हैं।

पिछले महीने पहलगाम में सैलानियों पर हमला किया गया था। अब कटरा जा रही श्रद्धालुओं से भरी एक बस को निशाना बनाया गया, जिसके चलते बस खाई में गिर गई। इसमें नौ लोगों की मौत हो गई और इकतालीस से अधिक लोग घायल हैं। पर्यटन कश्मीरी लोगों की आजीविका का बड़ा आधार है। इस तरह के हमलों से पर्यटन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे हमले नब्बे के दशक में बढ़ गए थे, मगर लंबे समय से सैलानियों को निशाना नहीं बनाया जा रहा था। अब ऐसा दिख रहा है तो इसकी वजहें भी साफ हैं।

पर्यटकों पर हमले के पीछे आतंकवादी संगठनों का मकसद घाटी में बाहर के लोगों की आवाजाही रोकना होता है। बाहरी मजदूरों और कश्मीरी पंडितों को लक्ष्य बना कर हमले करने के पीछे भी उनका मकसद यही है। मगर अब जिस तरह बड़ी संख्या में सैलानियों और श्रद्धालुओं को निशाना बनाया जा रहा है, उससे जाहिर है कि आतंकी लोगों में भय पैदा करना चाहते हैं। मगर इसे लेकर स्थानीय लोगों में किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दिख रही है, तो हैरानी की बात है, क्योंकि इससे उनकी आजीविका पर सीधा असर पड़ेगा। पिछले दस वर्षों में बेशक पत्थरबाजी और आंदोलन वगैरह की घटनाएं कम हुई हैं, आतंकी हमलों में मरने वालों की संख्या भी घटी है, मगर हकीकत यही है कि दहशतगर्दी किसी भी रूप में कम नहीं हुई है। दस वर्ष पहले और बाद के आंकड़ों की तुलना से साफ पता चलता है कि आतंकी हमले बढ़े हैं। इस दौरान बेशक बड़ी तादाद में आतंकवादी मारे गए हैं, मगर दहशतगर्दों की भर्ती में भी तेजी आई है। उन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन बढ़ा है। इसलिए यह स्वाभाविक ही पूछा जा रहा है कि जब सीमा पर चौकसी बढ़ी है, तलाशी अभियान तेज हुए हैं, दहशतगर्दों की वित्तीय मदद पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है, तो उन्हें भर्तियां करने और साजो-सामान जुटाने में कामयाबी कैसे मिल जा रही है।

पिछले दस वर्षों में जिस तरह सुरक्षाकर्मियों, सैलानियों, श्रद्धालुओं और बाहर से मजदूरी वगैरह करने गए लोगों को निशाना बना कर हत्याएं की गई हैं, उससे यह सवाल निरंतर गाढ़ा होता गया है कि आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा। राष्ट्रीय जांच एजंसी की रपट के मुताबिक ऐसे हमलों में पाकिस्तान के प्रशिक्षत दहशतगर्दों का हाथ होता है, स्थानीय लोग उन्हें सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं। अगर सीमा पर चौकसी सख्त की गई है, तो फिर सीमा पार से आतंकियों की घाटी में पैठ कैसे हो पा रही है। अगर खुफिया तंत्र पहले से चौकन्ना हुआ है, तो आतंकी कैसे सेना के काफिले पर हमला कर देते हैं और पहले ही उसकी भनक नहीं लग पाती। घाटी में आतंकवाद से निपटने के लिए नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत है।