जबसे जम्मू-कश्मीर में नई सरकार बनी है, वहां आतंकी हमले बढ़ गए हैं। निस्संदेह यह चिंता का विषय है। माना जा रहा था कि विधानसभा चुनाव के बाद वहां स्थानीय लोगों के हाथ में व्यवस्था आएगी तो दहशत का सिलसिला रुक जाएगा। मगर स्थितियां इसके उलट नजर आ रही हैं। वहां सरकार बनने के बाद अब तक पांच आतंकी हमले हो चुके हैं, जिनमें बाहरी मजदूरों और सुरक्षाबलों को निशाना बनाया गया। ताजा घटना बडगाम की है, जिसमें उत्तर प्रदेश के दो लोगों को गोली मार दी गई। हालांकि हर आतंकी घटना के बाद सेना का तलाशी अभियान तेज हो जाता है और कुछ आतंकियों को मार गिराया जाता है।
मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि आखिर क्या वजह है कि पिछले दस वर्षों से आतंकवाद समाप्त करने के तेज अभियान के बावजूद इसकी जड़ें घाटी में जमी हुई हैं। सरकार बार-बार दावे करती रही है कि घाटी में आतंकवादियों की कमर टूट चुकी है, वे केवल कुछ क्षेत्रों तक सिमट कर रह गए हैं। मगर हकीकत यह है कि कुछ-कुछ अंतराल पर दहशतगर्द अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं।
चलाए जा रहे तलाशी अभियान
पिछले दस वर्षों से वहां गहन तलाशी अभियान चलाए जा रहे हैं। अलगाववादी संगठनों के नेताओं और आतंकवादियों को वित्तपोषण करने वालों पर नकेल कसी जा चुकी है। ऐसे बहुत सारे लोगों को सलाखों के पीछे डाला जा चुका है, हजारों बैंक खाते बंद किए जा चुके हैं। सीमा पार से जिन रास्तों से दहशतगर्दों को मदद मिल सकती थी, वे सारे बंद कर दिए गए हैं। इन वर्षों में बहुत सारे दहशतगर्द और उनके सरगना मारे जा चुके हैं। इसके बावजूद अगर वहां लक्षित हिंसा का सिलसिला रुक नहीं रहा, सुरक्षा बलों पर घात लगा कर हमले कम नहीं हो पा रहे हैं, तो इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?
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छिपी बात नहीं है कि घाटी में दहशतगर्दी को पोसने में पाकिस्तान का हाथ है, मगर पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि स्थानीय युवाओं ने भी हाथ में हथियार उठाना शुरू कर दिया है। यह खुलासा खुद सरकार ने किया था, जब कोरोना के बाद घाटी में आतंकवाद से संबंधित रपट पेश की थी। चूंकि कश्मीर की स्थिति ऐसी है, जिसमें केवल राज्य सरकार से आतंकवाद से निपटने का दावा नहीं किया जा सकता। सेना, केंद्रीय सुरक्षाबलों और खुफिया एजंसियों को इसे रोकने के व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इसलिए इस मसले पर अपेक्षाएं केंद्र से ही बनी हुई हैं।
फारूक अब्दुल्ला ने राजनीतिक रंग देने की कोशिश की
ताजा घटना के बाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने आतंकवाद को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की है। उनका कहना है कि आतंकवादियों को मारने के बजाय पकड़ कर उनसे पूछताछ की जानी चाहिए कि वे किसकी शह पर काम कर रहे हैं। फारूक अब्दुल्ला ने यह भी शक जाहिर किया है कि नई सरकार बनने के बाद आतंकी हमले तेज होने के पीछे उनकी पार्टी की सरकार गिराने की साजिश भी हो सकती है।
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आतंकवाद को किसी सियासी चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। इस तरह उसके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान कमजोर पड़ते हैं। अब जम्मू-कश्मीर में नई सरकार बनी है, तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह केंद्र के साथ मिल कर इस समस्या से पार पाने की रणनीति तैयार करेगी और समन्वित रूप से इस दिशा में आगे बढ़ा जाएगा।
