किसी भी राजनीतिक रैली के दौरान यह कोशिश की जाती है कि सभा को सफल बताने के लिए वहां ज्यादा से ज्यादा लोग पहुंचें, लेकिन इस बात का ध्यान रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि भारी संख्या में लोगों के जमावड़े के बाद अगर भगदड़ जैसे हालात पैदा हुए तो उसे संभालने के लिए क्या व्यवस्था होगी। तमिलनाडु के करूर में शनिवार को एक रैली के दौरान भगदड़ मचने की वजह से कम से कम चालीस लोगों की मौत और बड़ी संख्या में लोगों के घायल होने की घटना एक बार फिर आयोजन और व्यवस्था को लेकर बरती गई व्यापक लापरवाही का नतीजा लगती है।

तमिलनाडु में अभिनेता से नेता बने विजय के लिए रैली का आयोजन करने वालों को यह अंदाजा जरूर होना चाहिए था कि कितनी संख्या में लोग वहां पहुंचेंगे। फिर भाषण देने के लिए विजय के पहुंचने में देरी की वजह से वहां इंतजार कर रहे 25 हजार से ज्यादा लोगों के बीच अफरा-तफरी मचने की आशंका बनी हुई थी। मगर इसे भांप कर पहले ही हादसे की स्थिति पैदा होने से रोकने के लिए आयोजकों की ओर से कुछ भी नहीं किया गया।

अफसोसनाक सिलसिला बन चुके हैं अब हादसे

सवाल है कि जब राजनीतिक रैलियों या धार्मिक आयोजनों के लिए आम लोगों के बड़े जमावड़े में बार-बार भगदड़ मचने की वजह से त्रासद हादसे लगातार सामने आ रहे हों, वैसे समय में भीड़ प्रबंधन को लेकर इस तरह की लापरवाही को कैसे देखा जाएगा। किसी भी हादसे का सबसे बड़ा सबक यह होना चाहिए कि हर स्तर पर ऐसे इंतजाम किए जाएं, ताकि फिर वैसी घटना न हो। मगर विडंबना यह है कि न तो प्रशासन और न ही आयोजन में शामिल समूहों या लोगों को एहतियात बरतने की जरूरत लगती है।

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इसी का नतीजा है कि हर कुछ दिनों बाद किसी राजनीतिक रैली या धार्मिक आयोजन के दौरान व्यापक अव्यवस्था और लापरवाही की वजह से नाहक ही लोगों की जान चली जाती है और बड़े पैमाने पर लोग घायल होते हैं। हादसों के बाद जांच की घोषणाएं तो की जाती हैं, लेकिन उनका नतीजा क्या निकलता है, किसे दोषी ठहराया जाता है और क्या कार्रवाई की जाती है, इस बारे में जनता को बताना जरूरी नहीं समझा जाता। यह बेवजह नहीं है कि अक्सर होने वाले हादसे अब अफसोसनाक सिलसिला बन चुके हैं।