यह विचित्र विडंबना है कि एक ओर सरकार पिछले कई वर्षों से स्वच्छता अभियान और हर जरूरी जगहों पर शौचालय की उपलब्धता के लिए विशेष कार्यक्रम चला रही है, इसमें बड़ी कामयाबी मिलने के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन हकीकत इससे अलग है। हाल ही में देश भर की अदालतों में शौचालयों की दशा पर उच्चतम न्यायालय में वस्तुस्थिति रपट दाखिल की गई।
रपट के मुताबिक, इन अदालत परिसरों में शौचालयों की लगातार अस्वच्छ स्थिति वहां के सभी उपयोगकर्ताओं के मौलिक और सम्मान के अधिकारों का उल्लंघन है। रपट में कहा गया है कि यह सीधे तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता सुनिश्चित करने में नाकामी है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब अदालत परिसरों की यह स्थिति है, तो बाकी जगहों पर क्या दशा होगी। निश्चित रूप से अदालत परिसरों की यह तस्वीर अफसोसनाक है, लेकिन यह केवल यहीं तक सीमित नहीं है। यह भी देखने की जरूरत है कि क्या हर जरूरी जगह पर ऐसे स्वच्छ सार्वजनिक शौचालय मौजूद हैं, जिसका उपयोग करने में किसी को हिचक न हो।
सच यह है कि स्वच्छता अभियान के एक दशक बाद भी कई जगहों पर सार्वजनिक शौचालयों की कमी दिखती है। जिन जगहों पर शौचालय बनाए भी गए हैं, तो कई बार वहां की गंदगी देख कर लोग उनका इस्तेमाल नहीं करते। लंबी दूरी वाले मार्गों पर बहुत कम जगहों पर यह सुविधा है। हालत यह है कि जिन पेट्रोल पंपों पर शौचालय की सुविधा है, वहां केवल तेल लेने आए वाहनों में बैठे लोगों को ही उसके उपयोग की इजाजत दी जाती है। आम लोगों को कई बार मना कर दिया जाता है।
यह निराशाजनक है कि खुले में शौच मुक्त वातावरण देने का वादा करने और इसके लिए अभियान चलाने वाली सरकार ने शौचालय बनाने के दावे तो किए, लेकिन उनकी साफ-सफाई के मानक नहीं तय किए। नतीजा यह कि इसकी समावेशी उपयोगिता का उद्देश्य ही हाशिये पर चला गया। दो साल पहले हुए एक सर्वेक्षण में कई लोगों ने माना था कि इन शौचालयों की दशा में कोई सुधार नहीं दिखता। सवाल है कि क्या केवल स्वच्छता का नारा देने भर से इसके उद्देश्य को हासिल किया जा सकेगा?