अपराध पर नकेल कसने के लिए कथित अपराधियों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने की परिपाटी-सी चल पड़ी है। यह सिलसिला उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ था और अब इसे कई राज्य सरकारों ने अपना लिया है। कहीं भी दो समुदायों के बीच कोई फसाद होता है, कोई बड़ी वारदात होती है, तो प्रशासन कुछ लोगों को चिह्नित कर उनके घर गिरा डालता है। जब यह सिलसिला अतार्किक और मनमाने ढंग से तेजी पकड़ने लगा तो इस पर रोक लगाने के लिए अदालतों के दरवाजे खटखटाए जाने लगे। इस पर करीब पांच महीने पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त निर्देश जारी करते हुए मकानों-दुकानों आदि के ध्वस्तीकरण पर रोक लगा दी।

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि किसी के आरोपी या दोषी ठहरा दिए जाने से उसका मकान ढहा देने का अधिकार नहीं मिल जाता। प्रशासन को उचित कारण बताना होगा कि कोई भी मकान गिराना क्यों जरूरी है। इसके लिए दूसरे पक्ष की दलीलें भी सुनी जानी चाहिए। उसे अपना जवाब देने के लिए उचित समय दिया जाना चाहिए। अगर कोई अधिकारी इन निर्देशों का पालन नहीं करेगा, तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। मगर इसके बावजूद, मकान-दुकान आदि ढहाने का सिलसिला रुका नहीं है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में ऐसी ही मनमानी करते हुए कुछ मकान ढहा दिए गए।

प्रयागराज में तोड़े गए मकानों पर कड़ा रुख अख्तियार

अब सर्वोच्च न्यायालय ने करीब चार वर्ष पहले प्रयागराज में तोड़े गए मकानों पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि पीड़ितों को दस-दस लाख रुपए मुआवजा दिया जाए। अदालत ने कहा कि इस मामले ने उसकी अंतरात्मा को झकझोर दिया है। दरअसल, प्रयागराज विकास प्राधिकरण ने कुछ लोगों के मकान इस शक के आधार पर तोड़ डाले थे कि वे एक कुख्यात अपराधी की जमीन पर बने हुए हैं। उन मकानों में रहने वालों को एक दिन पहले नोटिस थमाया गया और अगले दिन मकान तोड़ दिए गए।

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अदालत ने सवाल किया कि आखिर इस देश में लोगों को आश्रय का अधिकार है या नहीं। जब भी इस तरह मकान-दुकान आदि गिराने के मामले सामने आते हैं, तो सरकारों की दलील होती है कि वे अवैध रूप से बनाए गए थे। मगर यह समझ से परे है कि अवैध रूप से बनाए गए मकानों पर तभी विकास प्राधिकरणों और नगर निगम की निगाह क्यों जाती है, जब कोई आपराधिक घटना घट जाती है। इसके पहले ऐसी जगहों की निशानदेही क्यों नहीं हो पाती।

अपराध पर नकेल कसना राज्य सरकार की जिम्मेदारी

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपराध पर नकेल कसना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। मगर इसके लिए तय प्रक्रिया को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अपराध करने वाले का अपराध तब तक सिद्ध नहीं माना जा सकता, जब तक कि अदालत ऐसा फैसला न सुना दे। कोई भी सरकार खुद किसी को अपराधी सिद्ध करके उसके घर पर बुलडोजर नहीं चढ़ा सकती। उस मकान में उसके परिजन भी रहते हैं, जो निर्दोष होते हैं।

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आखिर किसी के अपराध की सजा दूसरे लोगों को बेघर करके क्यों दी जानी चाहिए। अवैध रूप से या कब्जा करके बनाए गए मकानों को ध्वस्त करने के भी नियम-कायदे हैं, इसीलिए इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक और अमानवीय करार दिया है। विचित्र है कि जिन मामलों को सरकारों को अपने विवेक से, लोगों के मानवाधिकारों का ध्यान रखते हुए सुलझाना चाहिए, उनमें वे खुद कठघरे में खड़ी हो रही हैं।