सरकारी कामकाज हो या फिर व्यावसायिक या निजी काम, निष्पक्षता का पैमाना हर जगह होना चाहिए। अपने प्रभुत्व का अहसास कराने या दुर्भावना से किसी मामले को बेवजह उलझाने की कोशिश किसी भी सूरत में उचित नहीं कही जा सकती। उच्चतम न्यायालय के एक ताजा फैसले ने इस तथ्य को और पुख्ता कर दिया है। शीर्ष अदालत ने एक मेडिकल कालेज में सीट बढ़ाने की मंजूरी से जुड़े मामले में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) को कड़ी नसीहत दी है।
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि एनएमसी सरकार का एक अंग है और उससे निष्पक्ष और तर्कसंगत तरीके से काम करने की अपेक्षा की जाती है। किसी संस्थान को मंजूरी के लिए एक अदालत से दूसरी अदालत का चक्कर लगवाना सिर्फ परेशान करने का प्रयास है। न्यायालय ने एनएमसी और अन्य याचिकाकर्ताओं पर दस लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया है।
सरकारी ऑफिसों के काटने पड़ते हैं चक्कर
यह बात छिपी नहीं है कि लोगों को छोटे-छोटे कामों के लिए सरकारी कार्यालयों के कई बार चक्कर काटने पड़ते हैं। अक्सर उन्हें कथित जरूरी औपचारिकताओं में इतना उलझा दिया जाता है कि वे बुरी तरह हताश हो जाते हैं। शीर्ष अदालत पहुंचा मेडिकल कालेज का मामला भी सरकारी संस्थाओं की इसी परिपाटी का उदाहरण है। इस कालेज को ‘मेडिकल असेसमेंट ऐंड रेटिंग बोर्ड’ की ओर से पहले शैक्षणिक सत्र 2023-24 के लिए सीट की संख्या बढ़ाने की मंजूरी दी गई और कुछ माह बाद तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए उसे वापस ले लिया गया।
पिछले वर्ष अक्तूबर में उच्चतम न्यायालय ने देश के कुछ चिकित्सा महाविद्यालयों में प्रशिक्षु चिकित्सकों को देय अनिवार्य भत्ते का भुगतान न करने के मामले में भी राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को कड़ी फटकार लगाई थी। उसका कहना था कि प्रशिक्षु चिकित्सक सोलह से बीस घंटे काम कर रहे हैं और उन्हें भत्ते का भुगतान न होने पर आयोग की ओर से अब तक संज्ञान क्यों नहीं लिया गया? मगर, सवाल है कि क्या चुनिंदा मामलों में न्यायपालिका के फैसलों से सरकारी कामकाज में निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित हो पाएगी? जाहिर है कि जब तक शासन के स्तर पर इस मामले में दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव रहेगा, तब तक व्यापक सुधार की उम्मीद धुंधली ही रहेगी।