किसी भी सरकार की कामयाबी इस बात से आंकी जाती है कि उसने नागरिकों के लिए काम का कैसा वातावरण बनाया और देश के आर्थिक विकास में उनका कितना योगदान सुनिश्चित किया है। मगर हमारे यहां गरीबी उन्मूलन के नाम पर चलाई जा रही खैरात की योजनाओं को उपलब्धि की तरह रेखांकित किया जाने लगा है। जब भी कोई चुनाव आता है, तो हर राजनीतिक दल बढ़-चढ़ कर मुफ्त की योजनाओं की फेहरिश्त पेश करना शुरू कर देता है।

इस पर उचित ही सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी जाहिर की है। अदालत ने कहा कि वोट के लालच में मुफ्तखोरों और परजीवियों का एक वर्ग तैयार हो रहा है। लोगों को बिना किसी काम के मुफ्त राशन और पैसा देना सही नहीं है। सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि वह इन लोगों को मुख्यधारा में लाए, ताकि वे भी देश के विकास में योगदान दे सकें। पहले भी मुफ्त की योजनाओं को लेकर गुहार लगाई गई थी, तब अदालत ने कहा था कि चुनाव में ऐसी घोषणाओं से परहेज किया जाना चाहिए। मगर किसी भी दल ने उस नसीहत को गंभीरता से नहीं लिया।

मनरेगा के तहत मिलती थी रोजगार की गांरटी

यह ठीक है कि कोई भी सरकार अपने नागरिकों को भूख से नहीं मरने दे सकती, इसीलिए भोजन का अधिकार कानून लाया गया था। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि देश की एक बड़ी आबादी को इस तरह मुफ्तखोर और अकर्मण्य बना दिया जाए। यह व्यवस्था तभी होनी चाहिए, जब लोगों को काम न मिल सके। हर परिवार को काम देने की गारंटी के साथ मनरेगा कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसमें कम से कम सौ दिन का काम देने की गारंटी दी गई थी। मगर उस कार्यक्रम की स्थिति यह है कि हर वर्ष उसमें पंजीकृत लोगों की कटौती हो रही है।

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धन का आबंटन और काम के दिन घटते जा रहे हैं। बहुत सारे लोगों को अब वर्ष में पचास दिन काम भी मुश्किल से मिल पाता है। ऐसी स्थिति में सरकारें किसानों, महिलाओं आदि को हर महीने नगदी हस्तांतरण करने के वादे कर रही हैं। जबकि हकीकत यह है कि अस्सी करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन, महिलाओं और किसानों को नगदी हस्तांतरण, बिजली-पानी मुफ्त देने जैसी योजनाओं के कारण कई राज्य सरकारों पर कर्ज का बोझ लगातार बढ़ता गया है। जाहिर है, इससे देश की तरक्की की कोई अच्छी सूरत नहीं बनती।

मुफ्त राशन और पैसा मिलेगा तो लोग शारीरिक श्रम करने से बचेंगे

यह स्वाभाविक है कि जब लोगों को मुफ्त का राशन और नगदी मिलेगी, तो वे शारीरिक श्रम करने से बचेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की चिंता वाजिब है कि देश की बड़ी आबादी को खैरात की योजनाओं से अकर्मण्य बना देना देश के विकास में रोड़े अटकाने जैसा है। अब धीरे-धीरे लोगों में यह मानसिकता बनती गई लगती है कि वे मुफ्त की योजनाओं को अपना अधिकार समझने लगे हैं और चुनावों के दौरान नजर टिकाए रहते हैं कि कौन-सा दल क्या-क्या और कितनी मुफ्त की योजनाएं देने का वादा करता है।

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यह मानसिकता ज्यादा खतरनाक है। किसी भी देश का विकास अपने नागरिकों को खैरात पर जीवन जीने को प्रोत्साहित करकेसंभव ही नहीं हो सकता। योजनाएं ऐसी बननी चाहिए, जिनसे लोगों को काम के अवसर पैदा हों, वे कमा कर खाएं और स्वाभिमान के साथ जीवन जी सकें। उचित तो यह होगा कि सभी राजनीतिक दल तय करें कि चुनाव मुद्दों पर लड़ेंगे और खैरात की योजनाएं सिर्फ उन लोगों के लिए बनेंगी, जो बहुत जरूरतमंद होंगे।