हास-परिहास हमारे जीवन का हिस्सा है। इसका अर्थ है- हंसी, मजाक, जिससे लोगों को खुशी और आनंद की अनुभूति होती है। जब कोई व्यक्ति तनाव में होता है, तो हंसी-मजाक से उसके भीतर उदासी के भाव को कम किया जा सकता है। हंसना हमारे स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होता है। मगर जब हंसने और हंसाने के लिए परिहास के बजाय किसी का उपहास किया जाए, तो उसे मानवीय, नैतिक और कानूनी पहलू से उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसके विपरीत इसे अपने अहंकार की तुष्टि, असभ्य व्यवहार और असंवेदनशीलता ही कहा जाएगा।

ऐसे ही एक मामले में सर्वाेच्च न्यायालय की ओर से सोशल मीडिया पर खासा असर रखने वाले पांच लोगों को बिना शर्त माफी मांगने का आदेश देना उन लोगों के लिए भी सबक है, जो सार्वजनिक रूप से किसी का उपहास करने से जरा भी गुरेज नहीं करते हैं। शीर्ष अदालत ने साफ कहा है कि व्यावसायिक फायदे के लिए टिप्पणी करना और प्रतिबंधित भाषण मौलिक अधिकार के अंतर्गत नहीं आते हैं।

हास्य के नाम पर आपत्तिजनक टीका-टिप्पणियां अनुचित

आजकल टेलीविजन और सोशल मीडिया पर कई तरह के हास्य कार्यक्रम एवं सामग्रियां परोसी जा रही हैं और इस दौरान हास्य के नाम पर आपत्तिजनक टीका-टिप्पणियों के मामले भी सामने आते रहते हैं। लोगों का मनोरंजन एक तरफ है, लेकिन किसी व्यक्ति, समुदाय या समाज की भावनाओं को आहत करना या उनके सम्मान को ठेस पहुंचाने का अधिकार किसी को नहीं है। ऐसे कार्यक्रमों के आयोजकों और प्रस्तोताओं की यह नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है कि कोई भी टिप्पणी करते समय सतर्कता और संवेदनशीलता बरती जाए।

खासकर, जब ऐसे लोग उपहास से पीड़ित हों, जो समाज में हाशिये पर रहने वाले वर्ग से संबंधित हों, तो मामले की गंभीरता और भी गहरी हो जाती है। सोशल मीडिया को प्रभावित करने वाले जिन पांच लोगों का मामला सामने आया है, उन पर आरोप है कि उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान दिव्यांग लोगों का मजाक उड़ाया था। सर्वाेच्च न्यायालय ने इसे गंभीरता से लिया तथा कहा कि आरोपियों पर जुर्माना लगाने पर भी विचार किया जाएगा और इस राशि का इस्तेमाल उन दिव्यांगों के उपचार में किया जा सकता है, जिन्हें उपहास का पात्र बनाया गया।

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यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या हास्य के नाम पर इस तरह के व्यावसायिक कार्यक्रमों में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कोई भी सामग्री परोसी जा सकती है! क्या इस बात का खयाल नहीं रखा जाना चाहिए कि मनोरंजन के लिए किसी के सम्मान और संवेदना को ताक पर न रखा जाए? शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में इस बात का उल्लेख किया है कि इस तरह की गतिविधियां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से कारोबार है। यही नहीं, न्यायालय ने सरकार को सोशल मीडिया पर सामग्री के विनियमन को लेकर दिशानिर्देश तैयार करने को भी कहा है।

दरअसल, इसे लेकर काफी पहले से मांग उठती रही है, लेकिन सरकार की ओर से अभी इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। इसमें दोराय नहीं है कि सोशल मीडिया पर जिस तरह से आपत्तिजनक और संवेदनहीन सामग्री परोसने का चलन बढ़ रहा है, उस लिहाज से जवाबदेही तय करने का पहलू भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। सही है कि हास्य मनोरंजन का एक जरिया है। मगर, दूसरों का मजाक उड़ाकर हंसी को बेचने की कोशिश किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकती है।