यह विचित्र है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने, उसके सफाए के लिए जंग का एलान करने वालों को खुद भ्रष्टाचार करने का एक तरह से हक हासिल था! अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अगर कोई भी सांसद या विधायक रिश्वत लेकर सदन में सवाल पूछता या किसी पार्टी के पक्ष में मतदान करता है, तो उस पर भ्रष्टाचार का मामला बनता है। भ्रष्टाचार का मामला उस पर उसी समय बन जाता है, जब वह रिश्वत लेता है।
दरअसल, अभी तक ऐसा करने वाले विधायक और सांसद ऐसे आरोपों में कानूनी कार्रवाई से इसलिए बच कर निकल जाते रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद 105/194 में कहा गया है कि जनप्रतिनिधियों के सदन में कही गई किसी बात या किए गए किसी आचरण के खिलाफ अदालत में कार्रवाई नहीं हो सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि यह अनुच्छेद पूरे सदन की सुरक्षा के मकसद से बनाया गया है, न कि किसी एक जनप्रतिनिधि की सुरक्षा के लिए। मामला दरअसल झारखंड मुक्ति मोर्चा की एक नेता से जुड़ा हुआ था, जिस पर आरोप था कि 2012 में उसने रिश्वत लेकर राज्यसभा चुनाव में दूसरे दल के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया था। इस मामले में नरसिम्हा राव बनाम भारत सरकार के मामले में आए फैसले की नजीर देते हुए आरोपी को बरी करने की गुहार लगाई गई थी। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने उस पुराने फैसले को भी अमान्य करार दे दिया।
नरसिम्हा राव मामले में कुछ सांसदों पर आरोप लगा था कि उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव के दौरान के रिश्वत लेकर सत्तापक्ष के लिए मतदान किया। यह आरोप सीबीआइ जांच में सिद्ध भी हो गया था, मगर अदालत ने उसमें इसी तर्क से हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था कि सदन की कार्यवाही के दौरान सांसदों को सांविधानिक सुरक्षा प्राप्त होती है। मगर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से एक नई नजीर बनी है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह दलबदल कानून के भीतर से गली निकाल कर सरकारें गिराने और विधायकों के दूसरे दल की सरकार में शामिल हो जाने की घटनाएं बढ़ी हैं, रिश्वत लेकर राज्यसभा चुनाव में दूसरे दल के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान के मामले बढ़े हैं, उसमें सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला ऐतिहासिक माना जाएगा।
अभी उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में जिस तरह लाइन लांघ कर दूसरे दल के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने का मामला आया, उसमें भी विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लग रहे हैं। संबंधित विधायकों के दलों ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई तो की है, मगर इससे लोकतांत्रिक मूल्यों की शुचिता का भरोसा पैदा नहीं होता।
सांसद और विधायक आम लोगों के प्रतिनिधि होते हैं और जब वे रिश्वत लेकर सवाल पूछते या किसी दूसरे दल के समर्थन में उतर आते हैं, तो उससे वे सारे मतदाता छले जाते हैं, जिन्होंने बहुमत देकर उन्हें सदन में भेजा होता है। महाराष्ट्र, गोवा, बिहार और इससे पहले कर्नाटक, मध्यप्रदेश में चुनी हुई सरकारों को गिरा दिया गया और वहां अल्पमत दलों की सरकारें बन गर्इं। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गहरी चोट पहुंची। सर्वोच्च अदालत ने भी कुछ मौकों पर इस प्रवृत्ति को घातक बताया था। अब ताजा फैसले से उम्मीद बनी है कि किसी भी प्रकार की रिश्वत लेकर अगर चुने हुए प्रतिनिधि लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उल्लंघन करते हैं, तो उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई हो सकेगी। इससे शायद उनका मनोबल भी कुछ गिरेगा।