आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों के संविधान पीठ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के प्रावधान को असंवैधानिक ठहरा दिया है। अलबत्ता पीठ के एक सदस्य ने फैसले से अलग राय जाहिर की है। यह फैसला केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा झटका है जिसने आयोग के गठन के लिए कानून बनाने की पहल की थी। साथ ही अदालत के इस निर्णय ने, न्यायिक नियुक्ति के संदर्भ में, संसद की सर्वोच्चता को भी दरकिनार कर दिया है।
गौरतलब है कि एक संविधान संशोधन विधेयक के जरिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन रास्ता साफ हुआ था। विधेयक पिछले साल अगस्त में संसद के दोनों सदनों ने आम राय से पारित किया। सर्वोच्च अदालत के फैसले को क्या संसद चुपचाप स्वीकार कर लेगी? सरकार का अनुरोध था कि मामले की सुनवाई के लिए ग्यारह जजों का एक अपेक्षया बड़ा संविधान पीठ गठित किया जाए। पर अदालत ने इसे नामंजूर कर दिया। कानूनमंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा है कि सरकार विधि विशेषज्ञों से फैसले पर विचार-विमर्श कर अपना रुख तय करेगी।
सरकार का आगे का कदम जो भी हो, यह साफ है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने के प्रस्ताव और संविधान के 99वें संशोधन की फिलहाल विदाई हो गई है। आयोग के गठन की कवायद इस तर्क से शुरू हुई थी कि कोलेजियम प्रणाली पर्याप्त पारदर्शी नहीं है, इसमें जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। इसके बजाय उच्च न्यायपालिका के जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए ऐसी संस्था हो, जिसमें वरिष्ठ न्यायाधीशों के अलावा कार्यपालिका और विधायिका के भी प्रतिनिधि हों। लेकिन संबंधित विधेयक को संसद की मंजूरी मिलने के बाद भी इस मसले पर विधि विशेषज्ञों की राय बंटी रही है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने आयोग बनाने का समर्थन किया, पर कई पूर्व वरिष्ठ जजों समेत अनेक न्यायविदों ने आयोग को लेकर आशंका जताई थी। अंदेशा यह था कि अगर आयोग बना तो इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी, क्योंकि आयोग सरकार के हस्तक्षेप का जरिया साबित होगा; आयोग में विधिमंत्री की मौजूदगी नियुक्ति की प्रक्रिया में निष्पक्षता पर नकारात्मक असर डाल सकती है।
बहरहाल, अब सवाल यह भी है कि क्या कानून बनाने के संसद के सर्वाधिकार को न्यायपालिका खारिज कर सकती है? इस मामले में संबंधित संविधान पीठ का तर्क रहा है कि संविधान के बुनियादी ढांचे में संसद कोई दखल नहीं दे सकती और न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है।
लेकिन फिर प्रश्न यह उठता है कि अगर कोलेजियम प्रणाली न्यायपालिका की स्वतंत्रता की शर्त है तो यह मूल संविधान में शामिल क्यों नहीं है? कोलेजियम प्रणाली की तजवीज तो सर्वोच्च अदालत ने करीब दो दशक पहले अपने दो फैसलों के जरिए की थी। फिर, इसे लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। जहां कुछ न्यायविद इसे बनाए रखने के पक्ष में रहे हैं, वहीं कुछ इसका विकल्प तैयार करने पर जोर देते रहे हैं।
फिलहाल जब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान दरकिनार हो गया है, यह सवाल एक फिर विचारणीय है कि क्या कोलेजियम प्रणाली में कुछ ऐसा फेरबदल किया जा सकता है जो इसे अधिक मान्य बनाए? मसलन, नियुक्ति करने वाली वरिष्ठतम जजों की समिति में राष्ट्रपति की ओर से एक-दो सदस्य नामित किए जा सकते हैं जो न्यायिक पृष्ठभूमि के हों। ऐसा प्रस्ताव आए तो क्या सर्वोच्च अदालत उसे गंभीरता से लेगी!