नफरती बयानों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सख्ती दिखाई है। चार राज्यों को नोटिस जारी कर पूछा है कि उन्होंने अपने यहां इस संबंध में नोडल अधिकारी की नियुक्ति की है या नहीं। दरअसल, इस साल अगस्त में नफरती बयानों पर रोक लगाने संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए अदालत ने सख्त टिप्पणी की थी कि इस तरह के बयान देने वाले चाहे जो हों, उन्हें बख्शा नहीं जाना चाहिए।

इसके लिए अदालत ने राज्य सरकारों को अपने यहां नोडल अधिकारी नियुक्त करने का आदेश दिया था, जो नफरती भाषणों का संज्ञान लेकर मामले दर्ज और उन पर कार्रवाई करेंगे। उसी संबंध में केंद्र सरकार की तरफ से बताया गया कि अट्ठाईस राज्यों ने नोडल अधिकारी की नियुक्ति कर दी है, मगर पांच राज्यों- गुजरात, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और नगालैंड ने इस संबंध में कोई जानकारी नहीं उपलब्ध कराई है। हालांकि बाद में पश्चिम बंगाल ने कहा कि उसने भी नोडल अधिकारी की नियुक्ति कर दी है। विचित्र है कि सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती और चार महीने बीत जाने के बाद भी चार राज्यों ने इस मामले पर गंभीरत नहीं दिखाई है।

सर्वोच्च न्यायालय कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को नफरती भाषणों पर रोक लगाने के लिए कठोर कदम उठाने का निर्देश दे चुका था, मगर जब उसके सकारात्मक नतीजे नहीं आए तब उसने खुद एक दिशा-निर्देश जारी कर राज्य सरकारों की जवाबदेही तय की थी। उसी के तहत नोडल अधिकारी की नियुक्ति की जानी थी।

छिपी बात नहीं है कि नफरती बयानों के चलते पिछले कुछ सालों में किस तरह सामाजिक ताना-बाना कमजोर हुआ है। समाज में सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बना है और कई जगहों पर इसके गंभीर नतीजे भी सामने आए हैं। सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने की कोशिशें की जाती हैं। इसमें अक्सर राज्य प्रशासन की लापरवाही और पक्षपातपूर्ण रवैया उपद्रवियों तथा समाज में तनाव पैदा करने की कोशिश करने वालों का मनोबल बढ़ाता रहा है।

जबकि वैमनस्यता फैलाने के खिलाफ कड़े कानून हैं, मगर कई मौकों पर राज्य प्रशासन आंखें मूंदे नजर आया है। कुछ राज्यों में धर्म संसद का आयोजन कर समुदाय विशेष के प्रति नफरत बोने की कोशश की गई, तो कुछ राज्यों में इसकी प्रतिक्रया में वैसे ही नफरती बोल बोले गए। दोनों ही समुदायों को राजनीतिक समर्थन मिलता देखा गया।

ऐसी कोशिशों को रोकना राज्य सरकारों की प्राथमिक जिम्मेदारी है। मगर जिस तरह समुदायों में नफरत पैदा कर राजनीतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, उसमें सरकारें अपने कर्तव्य से विमुख नजर आई, तो हैरानी की बात नहीं। सर्वोच्च न्यायालय के कड़े आदेश के बाद भी हरियाणा के नूंह में नफरती हरकतें खुल कर सामने आर्इं और प्रशासन लंबे समय तक निष्क्रिय नजर आया।

इससे यही पता चलता है कि राज्य सरकारें खुद इस मामले में गंभीर नहीं हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय उनके कर्तव्यों की याद दिलाता रहता है, मगर शायद उन्हें अपने सियासी नफे-नुकसान से ऊपर उठ कर सामाजिक ताने-बाने की सुरक्षा के संवैधानिक दायित्व की चिंता नहीं है। यह भी अकारण नहीं माना जा सकता कि कुछ राजनीतिक दलों के जिम्मेदार माने जाने वाले नेता भी सार्वजनिक मंचों से ऐसे भड़काऊ और समाज में नफरत पैदा करने वाले बयान देते देखे गए हैं। राज्य सरकारों के साथ-साथ इस मामले में राजनीतिक दलों से भी मर्यादा, संयम, अनुशासन और संवैधानिक मूल्यों के प्रति गंभीरता की अपेक्षा की जाती है।