संसद और विधानसभाओं को आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से मुक्त करने के लिए बातें करने में शायद ही कभी कमी की गई हो, मगर जमीनी स्तर पर क्या किया गया है, वह विधायिका में ऐसे प्रतिनिधियों की मौजूदगी से पता चलता है। हालत यह है कि ऐसे नुमाइंदों पर जो मुकदमे चलते रहते हैं, उनकी सुनवाई की रफ्तार भी ऐसी होती है कि वर्षों तक उनके सांसद या विधायक बने रहने की स्थिति पर आंच नहीं आती।
ऐसे दागी जनप्रतिनिधियों के मुकदमों के निपटारे को लेकर अक्सर सवाल उठने के बावजूद इस दिशा में कोई ठोस व्यवस्था नहीं बन सकी है। हालांकि इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय पहले भी चिंता जता चुका है, मगर गुरुवार को अदालत ने फिर इसे लेकर सख्त रुख अख्तियार किया और सांसदों-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले के जल्द निपटारे पर कई दिशानिर्देश जारी किए।
यों शीर्ष अदालत ने निचली अदालतों को एक जैसा दिशानिर्देश देने को मुश्किल बताया, लेकिन यह साफ कहा कि ऐसे मामलों के लिए उच्च न्यायालयों में एक विशेष पीठ गठित की जाए; निचली अदालतें सांसदों-विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की निगरानी के लिए स्वत: संज्ञान लें।
दरअसल, ऐसे ज्यादातर मामलों में लेटलतीफी देखी जाती रही है और कई बार इसका मजबूत कारण नहीं होता है। इच्छाशक्ति के अभाव में मुकदमे लंबे समय तक लटकते रहते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हाई कोर्ट आपराधिक मामलों में सांसदों-विधायकों के खिलाफ मुकदमों की स्थिति पर रिपोर्ट के लिए विशेष निचली अदालतों को बुला सकते हैं।
इसके अलावा, केवल दुर्लभ कारणों को छोड़ कर संसद सदस्यों, विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई स्थगित नहीं की जाएगी। इस क्रम में पर्याप्त बुनियादी ढांचा और तकनीकी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। कहा जा सकता है कि इस समस्या को लेकर लंबे समय से सिर्फ चिंता जताने से आगे अब सुप्रीम कोर्ट के ये निर्देश समाधान की ओर बढ़ते कदम हैं।
लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार और संबंधित महकमे इन दिशानिर्देशों पर अमल के लिए कितनी इच्छाशक्ति रखते हैं। अपराध की दुनिया से चल कर संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले लोगों की वजह से समूची व्यवस्था के दूषित होने को लेकर जताई जाने वाली चिंता के समांतर एक सवाल यह है कि इस प्रवृत्ति को खत्म करने के लिए जमीनी स्तर पर क्या किया जा रहा है।
देश की राजनीति में हाथ आजमा कर संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के आंकड़े अक्सर सामने आते रहते हैं। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स यानी एडीआर ने अपनी एक रपट में बताया था कि करीब चालीस फीसद मौजूदा सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं।
इनमें से हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आरोप वाले मामलों की संख्या पच्चीस फीसद है। उच्चतम न्यायालय की ताजा सख्ती के बाद अगर कोई ठोस पहलकदमी होती है, एक व्यवस्था बनती है तो इनसे संबंधित मुकदमों का त्वरित निपटारा हो सकता है।
मगर सवाल है कि अपराधों में लिप्त रहने के स्पष्ट आरोपों के बावजूद सांसद या विधायक बनने के लिए चुनाव लड़ने की इजाजत से संबंधित नियम-कायदों के रहते इस समस्या से कैसे पार पाया जा सकेगा! हत्या या बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के कई आरोपी बाकायदा किसी मुख्यधारा की पार्टी से टिकट लेते हैं, नामांकन के दौरान स्पष्ट घोषणा के साथ चुनाव लड़ते हैं, लेकिन उन्हें राजनीतिक दलों से लेकर चुनाव आयोग तक की ओर से रोका नहीं जा पाता। जाहिर है, आपराधिक छवि के लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने को लेकर स्पष्ट नियम-कायदे तय किए बिना संसद और विधानसभाओं को दागी नुमाइंदों से मुक्त करना मुश्किल बना रहेगा।