किसी भी राज्य के विकास और आर्थिक संपन्नता में उसके अपने संसाधनों की अहम भूमिका होती है। मगर, देश के कुछेक राज्य ऐसे हैं, जहां प्राकृतिक संसाधन तो भरपूर हैं, लेकिन उन्हें इनका पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा था। इसका कारण केंद्र सरकार और राज्यों के बीच करों तथा उपकरों के बंटवारे को लेकर विवाद था। खनिज संपदा पर किसका हक है, यह सवाल कई मौकों पर उठता रहा। पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद का निपटारा करते हुए व्यवस्था दी कि खनिज भंडार राज्य की संपदा हैं। फिर राज्यों को एक और बड़ी राहत बुधवार को मिली, जिसमें उन्हें खनिजों और खनिज-युक्त भूमि पर केंद्र सरकार द्वारा पिछले बारह वर्षों में क्रमबद्ध तरीके से वसूले गए कर का बकाया लेने की अनुमति मिल गई।

दरअसल, यह मामला इसलिए उलझा हुआ था कि संविधान में खदानों के आबंटन से संबंधित सीमाएं तय करने का अधिकार केंद्र सरकार को दिया गया है। जमीन और इमारत आदि पर शुल्क लगाने का अधिकार राज्य सरकारों को है। इसलिए राज्यों में खनिजों पर कर केंद्र सरकार लगा रही थी। मगर, सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने पिछले महीने स्पष्ट कर दिया था कि खनिज राज्य की संपदा हैं, इसलिए वे पट्टे की कीमत तय कर सकते हैं।

खदानों और खनिज-युक्त भूमि पर कर लगाने का विधायी अधिकार राज्यों का है। कुछ राज्यों में प्राकृतिक संसाधन ही राजस्व अर्जित करने का मुख्य स्रोत होता है, इसलिए अगर खनिजों पर भी केंद्र सरकार ही कर वसूलेगी तो राज्यों को अपने विकास कार्यों के लिए धन जुटाना मुश्किल हो जाएगा।

खनिज के खजाने पर पूरी तरह हक राज्यों का

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद राज्य खनिजों और खनिज-युक्त भूमि पर केंद्र सरकार की ओर से वसूली गई रायल्टी और कर की बकाया राशि के भुगतान की मांग कर रहे थे। हालांकि केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया, मगर शीर्ष अदालत ने केंद्र की दलीलों को खारिज कर राज्यों को खनिजों और खनिज-युक्त भूमि पर वसूले गए रायल्टी और कर पर एक अप्रैल 2005 से बकाया लेने की अनुमति दे दी। शीर्ष अदालत के इस फैसले ने साफ कर दिया है कि खनिज के खजाने पर पूरी तरह राज्यों का हक है।