सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए सुकूनदेह हो सकती है कि सरकार की आलोचना करना पत्रकारों का अधिकार है। हालांकि देखने की बात है कि सरकारें इस बात को कहां तक स्वीकार कर पाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश के एक पत्रकार के खिलाफ दायर मुकदमे की सुनवाई करते हुए की। इस संबंध में अदालत ने संविधान के अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े अनुच्छेद की याद भी दिलाई और पत्रकार को गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान कर दिया।

दरअसल, सरकारों को अपनी आलोचना कभी रास नहीं आती, मगर पिछले कुछ वर्षों में सरकारें इसे लेकर प्रकट रूप में सख्त नजर आने लगी हैं। सरकार के खिलाफ अखबारों में खबरें, लेख या कोई वैचारिक टिप्पणी करने पर कई पत्रकारों को प्रताड़ित करने की घटनाएं देखी गई हैं। यहां तक कि कुछ पत्रकारों पर गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम के तहत भी मुकदमे दर्ज किए गए, जिसमें जमानत मिलनी मुश्किल होती है। इस धारा के तहत कई पत्रकार अब भी सलाखों के पीछे हैं। कुछ मामलों में पहले भी सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं माना जा सकता। मगर किसी सरकार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया।

कुछ राज्यों में ऐसे भी उदाहरण हैं, जब सरकार की किसी नीति या फैसले की आलोचना करने पर पत्रकारों को पकड़ कर थाने में बंद किया गया और उनके साथ मारपीट की गई। दरअसल, इस तरह की कोशिशें सच्चाई को सामने लाने से रोकने के लिए की जाती हैं। जबकि स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा है कि पत्रकारीय आलोचना को प्रोत्साहित किया जाए। इससे सरकारों को अपनी नीतियों के निर्धारण, योजनाओं के संचालन आदि में सुधार करने का अवसर मिलता है। आलोचना को रोक कर गलत नीतियों को चलाते रहना एक तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने का प्रयास ही होता है।

आलोचना का अर्थ निंदा करना नहीं

हालांकि आलोचना का अर्थ हर समय निंदा करना नहीं होता। किसी भी मुद्दे के पक्ष और विपक्ष का तार्किक विश्लेषण करना होता है। पत्रकारिता यही करती है। वह लोकहित में सरकार को कदम उठाने का रास्ता सुझाती रहती है, इसीलिए उसकी विश्वसनीयता होती है। मगर सरकारें जब उसके मूल स्वभाव को ही बदलने का प्रयास करती हैं, तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रहार करती हैं। ऐसे में पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न होकर प्रचारतंत्र में तब्दील होने लगती है।

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किसी देश की पत्रकारिता कितनी स्वतंत्र है और कितने साहस के साथ अपने सत्ता प्रतिष्ठान की आलोचना कर पा रही है, इससे उस देश की खुशहाली का भी पता चलता है। यह अकारण नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में विश्व खुशहाली सूचकांक में भारत निरंतर नीचे खिसकता गया है। इसलिए कि खुशहाली नापने के पैमाने में एक बिंदु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी होता है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि कोई देश अपनी आर्थिक तरक्की का तूमार तो खूब बांध ले, पर खुशहाली के मानकों पर गरीब कहे जाने वाले देशों से भी पीछे नजर आए।

आलोचना से सरकारें कुछ सीखने का प्रयास करेगी

पत्रकारिता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को दूर करने में मदद करती है। उसका लाभ उठाने के बजाय अगर उसका गला घोटने का प्रयास होगा, तो सही अर्थों में विकास का दावा नहीं किया जा सकता। अगर कोई सरकार सचमुच उदारवादी और लोकतांत्रिक होगी, तो वह आलोचना से कुछ सीखने का प्रयास करेगी।