भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने निजी और सार्वजनिक बैंकों को कारोबारी होड़ में आक्रामक रुख अपनाते हुए कर्ज के मामले में जोखिमों के प्रति सतर्क रहने का सुझाव दिया है। कई उदाहरण देते हुए उन्होंने उजागर किया कि किस तरह कुछ बैंक अपने बही-खातों में सही स्थिति दर्ज न करते हुए अपने कारोबार को तो ऊंचा दिखा देते हैं, मगर उससे उत्पन्न होने वाले खतरों से उबर पाना उनके लिए मुश्किल होता है।

रिजर्व बैंक की यह चिंता समझी जा सकती है। हालांकि बैंकों के कारोबार पर नजर रखने के लिए रिजर्व बैंक की नियामक इकाई है, जो बैंकों के बही-खातों की स्थिति का आकलन करती है। उसके बावजूद कुछ बैंक अपने कर्जों की वापसी न हो पाने के तथ्यों को छिपाते हैं। कुछ बैंक चतुराई से अपने कारोबार को ऊंचा दिखाते हैं, ताकि रिजर्व बैंक से उन्हें अपना कारोबार फैलाने की इजाजत मिल सके।

इस आधार पर वे आक्रामक तरीके से कर्ज बांटना शुरू कर देते हैं। बैंकों की मूल कमाई पर मिलने वाले ब्याज से ही होती है, इसलिए बैंक इसके लिए तरह-तरह की योजनाएं चला कर ग्राहकों को आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। मगर जिस बैंक की कारोबार की जितनी क्षमता है, वह उसी के अनुरूप कर्ज देने को अधिकृत होता है। इसलिए चतुराई भरा लेखाजोखा पेश कर वे अपनी कर्ज सीमा का विस्तार करने का प्रयास करते हैं।

जब रिजर्व बैंक ने बड़े सार्वजनिक और निजी बैंकों में इस प्रकार की अनियमितता चिह्नित की है, तो छोटे बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों यानी एनबीएफसी में होने वाली ऐसी गड़बड़ियों का अंदाजा लगाया जा सकता है। हर छोटा बैंक बड़े बैंक की श्रेणी में और एनबीएफसी बैंक बनने की कोशिश में देखी जाती है। इस तरह वे अपने कारोबार के आंकड़े बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिश करती हैं।

कई सहकारी बैंक और एनबीएफसी इस तरह चालाकी से कर्ज देने के अपने दायरे को बढ़वा लेने में कामयाब रही हैं, मगर जब उनका एनपीए यानी गैर निष्पादित संपत्तियों का बोझ बढ़ता गया, तो वे डूब ग। पंजाब एवं महाराष्ट्र बैंक इसका हाल का उदाहरण है। उस बैंक ने अपने लेखाजोखा में चालाकी से विवरण दर्ज कर रिजर्व बैंक को धोखा दिया और कर्ज बांटने का अपना दायरा बढ़ाता गया। उसमें कुछ बड़ी कंपनियों को बड़े कर्ज बांटे गए। जब वे कर्ज वापस नहीं आ पाए, तो वह बैंक डूब गया। इसी तरह कई बड़े बैंक भी अपना एनपीए छिपाने का प्रयास करते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि वह लगातार बढ़ता जाता है।

देश के सारे सार्वजनिक बैंक एनपीए के बोझ से दबे हुए हैं। स्थिति यह है कि पिछले दस सालों में बैंकों का एनपीए बढ़ कर दो गुने से अधिक हो गया है। कई कारोबारियों ने बैंकों से भारी कर्ज लेकर देश ही छोड़ दिया। कई कंपनियों ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया। दरअसल, कंपनियों को दिए जाने वाले कर्ज को लेकर हमारे यहां नियम-कायदे इतने लचीले हैं कि लेने वालों के लिए खुद को दिवालिया घोषित कर कर्ज की रकम डकार जाना आसान लगता है। ऐसे में शक्तिकांत दास की चिंता स्वाभाविक है कि अगर बैंकों ने कर्ज बांटते समय सावधानी नहीं बरती, तो यह अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरनाक साबित हो सकता है। मगर यह समस्या केवल नसीहत से नहीं हल होगी, रिजर्व बैंक को ही कोई सख्त रास्ता निकालना पड़ेगा।