शिक्षण संस्थानों का वास्तविक अर्थ है, जहां ज्ञानार्जन के साथ-साथ विद्यार्थियों के भीतर व्यावहारिक कौशल और जीवन में चुनौतियों से मुकाबला करने की मानिसक शक्ति भी विकसित होती है। मगर जब कोई विद्यार्थी अपनी जिंदगी से हार मानने को मजबूर हो जाए, तो इन संस्थानों का महत्त्व क्या रह जाता है? क्या आज के शिक्षण संस्थानों का उद्देश्य सिर्फ किताबी ज्ञान बांटना रह गया है?

क्या संस्थानों के प्रबंधन का यह दायित्व नहीं है कि वे अपने परिसर में ऐसा माहौल तैयार करें कि कोई भी विद्यार्थी बिना किसी भेदभाव, परेशानी और तनाव के शिक्षा ग्रहण कर सके? इसी लापरवाही का नतीजा है कि देशभर में विद्यार्थियों की आत्महत्या के मामले साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं। हालांकि सरकार की ओर से इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन उन्हें जमीन पर उतारने की गंभीरता कहीं नजर नहीं आती है।

यही कारण है कि अब सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और आत्महत्या के मामलों से निपटने के लिए निर्धारित दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन पर आठ सप्ताह के भीतर विस्तृत ब्योरा पेश करने को कहा है।
राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो की हाल की एक रपट भी इस बात की तस्दीक करती है कि देश में विद्यार्थियों की आत्महत्या का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।

रपट के मुताबिक, वर्ष 2023 में विद्यार्थियों की आत्महत्या के 13,892 मामले सामने आए, जो वर्ष 2013 की तुलना में लगभग पैंसठ फीसद अधिक है। जबकि वर्ष 2019 की तुलना में यह वृद्धि चौंतीस फीसद दर्ज की गई है। समग्र तौर पर देखें, तो वर्ष 2023 में हुई कुल आत्महत्या में विद्यार्थियों की संख्या आठ फीसद से अधिक थी। यह स्थिति वास्तव में भयावह है। विद्यार्थियों की मानसिक स्थिति बिगड़ने के कई कारण हो सकते हैं।

मसलन, पढ़ाई का दबाव, शिक्षा संस्थानों में हिंसा और जातिगत भेदभाव या फिर घरेलू एवं आर्थिक परेशानियां। ये ऐसी समस्याएं हैं, जिनका समय रहते समाधान किया जा सकता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में 25 जुलाई के अपने फैसले में सरकार और शिक्षा संस्थानों को विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए थे।

शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों की आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी बेहद संवेदनशील मसला है। सरकार और शिक्षा संस्थानों को विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य संकट को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्थायी नियमावली और दिशा-निर्देश तैयार किए जाने चाहिए। शीर्ष अदालत ने अपने पूर्व के फैसले में यह भी निर्देश दिया था कि सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश दो महीने के भीतर तमाम निजी कोचिंग केंद्रों के लिए पंजीकरण, छात्र सुरक्षा मानदंड और शिकायत निवारण तंत्र अनिवार्य करने वाले नियम अधिसूचित करें।

मगर राज्यों की उदासीनता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को मामले की सुनवाई के दौरान दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए। इसमें दोराय नहीं कि शैक्षणिक संस्थानों और कोचिंग केंद्रों में विद्यार्थियों की आत्महत्या की रोकथाम के लिए अब एकीकृत और ठोस नियमावली लागू किए जाने की जरूरत है।

इनके प्रभाव की वार्षिक समीक्षा भी होनी चाहिए और उसी लिहाज से नियमों को अद्यतन किया जाना चाहिए, ताकि विद्यार्थियों को किसी भी तरह के मानसिक दबाव से छुटकारा मिल सके।