सभ्यता के विकास-क्रम में कायदे से होना यह चाहिए था कि सामाजिकता की जड़ें मजबूत हों और सरोकार की संवेदना को ज्यादा से ज्यादा जगह मिले। मगर आधुनिक समाज में नए-नए तकनीकों के सहारे रोज आधुनिक होती दुनिया में मनुष्य की पहुंच का दायरा तो विस्तृत हुआ है, मगर इसी क्रम में एक नई समस्या यह पैदा हुई है कि हजारों मील दूर किसी व्यक्ति से रिश्तों के आभासी तार जोड़ने वाला कोई इंसान वास्तविक समाज के साथ जुड़ाव को महसूस करने की संवेदना खोता गया। यह बेवजह नहीं है कि बहुत सारे लोग अकेलेपन के दंश को अलग-अलग रूप में झेलते हैं, मगर इसकी वजहों और हल को लेकर उनके भीतर कोई स्पष्टता नहीं बन पाती। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस स्थिति को ‘जुड़ाव न महसूस करने के सामाजिक दर्द’ रूप में परिभाषित किया है। अगर कोई व्यक्ति इस समस्या के जाल में खुद को फंसा हुआ पा रहा है और उसके प्रति सहज या अनुकूलित होता जा रहा है, तो इससे ऐसे व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक सेहत में तेज गिरावट हो सकती है। एक शोध में इसका आकलन इस रूप में किया गया है कि सामाजिक जुड़ाव की भावना का अभाव हर रोज पंद्रह सिगरेट पीने के बराबर का स्वास्थ्य जोखिम पैदा करता है।

दरअसल, अलग-अलग कारणों से अपने दायरे में सिमटते जा रहे लोग न केवल सामूहिकता बोध से वंचित हो रहे हैं, बल्कि कई गंभीर बीमारियों को पलने का मौका दे रहे हैं। अफसोस यह है कि स्मार्टफोन या आधुनिक यंत्रों को बहुत सारे लोग आज अपने सामाजिक संबंधों के दुनिया भर में विस्तृत होने का जरिया मानते हैं। मगर इंटरनेट पर लोगों की फैलती दुनिया कितनी आभासी है, इसका पता तब चलता है, जब किसी गंभीर मानसिक या शारीरिक परेशानी में लोग फंसते हैं और उस समय उन्हें वास्तविक दुनिया के मनुष्यों की जरूरत होती है। तब उन्हें अपने परिजन, रिश्तेदार, करीबी दोस्त याद आते हैं, जो उसे इस संजाल से निकलने में मदद कर सकते हैं। मगर तकनीक आधारित कथित आधुनिकता के मूल्यों और उसमें सिमटती दुनिया में लोग लगातार भीड़ में अकेले पड़ते जा रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि लोगों के बीच प्रत्यक्ष रूप से आपसी मेलजोल बढ़े, सहयोग पर आधारित सामाजिकता बोध की भावना मजबूत हो।