आमतौर पर स्वाधीनता दिवस को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री सरकार की उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं पर बात करते हैं। मगर इस बार उन्होंने इस परंपरा को तोड़ते हुए देश के सामने कुछ ऐसी बड़ी चुनौतियों को रेखांकित किया, जिसे लेकर विपक्ष की भृकुटि कुछ तन गई है। उन्होंने देश के सामने दो बड़ी समस्याओं पर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद देश की तरक्की में सबसे बड़ी बाधा हैं।

स्वाभाविक ही इससे लोगों का ध्यान कांग्रेस की तरफ गया, मगर प्रधानमंत्री ने स्पष्ट करते हुए कहा कि जब मैं परिवारवाद की बात करता हूं, तो लोग इसका अर्थ केवल राजनीति तक सीमित कर देते हैं, जबकि यह प्रवृत्ति देश की तमाम संस्थाओं में अपनी जड़ें जमा चुकी है। इसके चलते देश की प्रतिभाओं को नुकसान उठाना पड़ता है। प्रधानमंत्री के इस बयान का स्पष्ट संकेत है कि सरकार भ्रष्टाचारियों के खिलाफ सख्ती जारी रखेगी।

दूसरे, राजनीति में परिवारवाद की वजह से देश की तमाम संस्थाओं में जो यह प्रवृत्ति अपनी पैठ बनाए हुई है, उसे समाप्त करने की कोशिशें होनी चाहिए। मगर यह कैसे होगा, इसका नक्शा अभी स्पष्ट नहीं है। भ्रष्टाचार पर तो सरकार का प्रयास नजर आता है, मगर राजनीति और संस्थाओं में भाई-भतीजावाद समाप्त करने के लिए वह क्या कदम उठाएगी, देखने की बात है।

राजनीति में परिवारवाद अब पुरानी प्रवृत्ति बन चुकी है। इससे निजात पाने की बातें तो लगभग हर दल करता है, मगर इस दिशा में व्यावहारिक कदम कोई नहीं उठाता। जब तक कोई राजनीतिक दल नया और सत्ता से बाहर रहता है, तब तक कुछ हद तक इस प्रवृत्ति से बचा रहता है, मगर जनाधार बढ़ने और सत्ता में आने के साथ ही भाई-भतीजावाद और परिवारवाद की बीमारी उसे भी घेरनी शुरू कर देती है।

इस प्रवृत्ति की शुरुआत बेशक कांग्रेस में हुई थी, पर अब शायद ही कोई दल इससे अछूता है। कई क्षेत्रीय दलों में तो परिवारवाद इस कदर हावी है कि सारी पार्टी जैसे एक ही परिवार के लोग मिल कर चलाते हैं। हालांकि तर्क दिया जाता है कि जब डाक्टर की संतान डाक्टर, इंजीनियर की संतान इंजीनियर, व्यवसायी की संतान व्यवसायी हो सकती है, तो राजनेता की संतान को राजनीति में आने से क्यों रोका जाना चाहिए।

मगर राजनीति और पेशे में फर्क करना होगा। राजनीति लोगों की सेवा के संकल्प के साथ शुरू की जाती है और लोगों की अपेक्षा भी यही रहती है कि उनका प्रतिनिधि उनके हक के लिए काम करे। मगर देखा जाता है कि बड़े नेताओं के बच्चे राजनीति में आकर पिता के रसूख से चुनाव जीत कर मंत्री पद तक पहुंच जाते हैं।

राजनीति में पनपी इस प्रवृत्ति से दूसरी संस्थाएं भी अछूती नहीं रह पातीं, क्योंकि आखिरकार उनका संचालन राजनीति यानी सरकार ही करती है। अनेक सरकारी संस्थानों, खेल संघों, आयोगों आदि में सत्तापक्ष के लोगों की संतानों को काबिज देखा जा सकता है। बहुत सारे बड़े ठेके राजनेताओं की संततियों को मिल जाते हैं।

वही परामर्श देने के नाम पर देशी-विदेशी कंपनियों से शुल्क के रूप में रिश्वत लेकर उन्हें सरकारी योजनाओं में हिस्सेदार बनाते रहते हैं। इस तरह भ्रष्टाचार की परत-दर-परत बनती चली जाती है। अब भाजपा भी अपने को इस प्रवृत्ति से मुक्त होने का दावा नहीं कर सकती। इसलिए अगर सरकार सचमुच भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को खत्म करना चाहती है, तो उसे इसे लेकर दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी पड़ेगी।