दिल्ली के नरेला में शुक्रवार को सीवर की सफाई करने उतरे दो मजदूरों की दम घुटने से मौत की घटना से एक बार फिर स्पष्ट हुआ है कि इस समस्या पर काबू पाने को लेकर संबंधित सरकारी महकमों के भीतर कोई गंभीरता नहीं है। वरना, क्या वजह है कि इस मसले पर घोषित किए जाने वाले तमाम नियम-कायदों पर अमल को लेकर कभी सख्ती सामने नहीं आई।

नतीजतन, आए दिन ऐसी घटनाएं होती हैं, जिनमें मजदूरों को बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर की सफाई के लिए भीतर उतार दिया जाता है और उसमें मौजूद खतरनाक जहरीली गैसों की चपेट में आकर कइयों की जान चली जाती है। नरेला की घटना में सीवर में उतरे मजदूरों को बचाने की कोशिश में एक अन्य मजदूर भी बेहोश हो गया। जब भी इस तरह की घटना होती है तो सरकार जांच और कार्रवाई के साथ-साथ इस तरह काम कराने पर रोक लगाने की बात तो करती है, लेकिन नतीजा फिर ढाक के वही तीन पात होता है।

मशीनों के दौर में इसानों द्वारा हो रही सफाई

सीवर, नालों और शौचालय की हाथ से या सामान्य तरीके से सफाई पर काफी पहले पाबंदी लगाने की घोषणा हो चुकी है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने भी समय-समय पर सख्त निर्देश दिए हैं। मगर जो सरकारें अन्य मामलों में कानूनों को लागू करने में बेहद सक्रिय दिखती हैं, उनमें सीवर या बड़े नालों में मजदूरों को उतार कर सफाई कराने पर पूरी तरह रोक लगाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखती। क्या ऐसा इसलिए है कि ऐसी घटनाओं के पीड़ित समाज के सबसे दबे-कुचले वर्ग से आते हैं?

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिस दौर में दुनिया भर में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में रोज नई ऊंचाइयां हासिल करने के दावे हो रहे हैं, उसमें हमारे देश के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर सीवर की सफाई के दौरान मजदूरों की मौत की खबरें आती रहती हैं। सवाल है कि आज जब सभी क्षेत्रों में आधुनिक तकनीकी का दायरा फैल रहा है, ज्यादातर कामों को मशीनों के सहारे किया-कराया जा रहा है, सीवर की सफाई क्यों इंसान से कराई जाती है।