यह एक बड़ी विडंबना है कि आज जब हम अर्थव्यवस्था की ऊंचाइयों को हासिल करने के दावे कर रहे हैं, उसमें आए दिन सीवर की सफाई करते लोगों की मौत की खबरें आती हैं। उत्तर प्रदेश के वृंदावन में सीवर की सफाई करने उतरे दो मजदूरों की मौत ने फिर यही दर्शाया है कि आर्थिक विकास के आंकड़ों की चकाचौंध में समाज के सबसे कमजोर तबकों की फिक्र करना जरूरी नहीं समझा जाता है। शनिवार को एक ठेकेदार के कहने पर सीवर की सफाई के लिए उसमें उतरे दो मजदूरों की जहरीली गैस की चपेट में आकर मौत हो गई।
मामले के तूल पकड़ने के बाद प्रशासन की ओर से इस संबंध में मामला दर्ज किए जाने और मुआवजा देने के आश्वासन जैसी औपचारिकताएं पूरी की गईं। मगर यह समझना मुश्किल है कि इस तरह सीवर की सफाई कराने पर रोक के बावजूद संबंधित सरकारी महकमे आखिर किन वजहों से पारंपरिक तरीकों से सीवर की सफाई और उसमें मरने वालों की त्रासदी की लगातार अनदेखी करते रहे हैं!
सबसे कमजोर तबके से आते हैं पीड़ित लोग
आखिर क्या वजह है कि सीवर में सफाई करने उतरे मजदूरों की जोखिम भरी जिंदगी और इस काम में उनके अस्तित्व और गरिमा के सवाल पर सोचना हमें जरूरी नहीं लगता? इस मसले पर शीर्ष अदालत के स्पष्ट निर्देश और तीखी टिप्पणियों के बावजूद सरकारों ने शायद ही कभी निजी ठेकेदारों के खिलाफ सख्ती बरतने, किसी की जिम्मेदारी तय करने और सीवर में जोखिम भरे हालात में किसी इंसान को उतारने पर रोक को लेकर गंभीरता दिखाई हो।
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नतीजा यही है कि आजादी के सात दशक बाद आज भी अक्सर सीवर की सफाई के लिए उसमें उतरे मजदूर अपनी जान गंवा रहे हैं। विचित्र है कि एक ओर विज्ञान और तकनीक की उपलब्धियों की बदौलत कृत्रिम मेधा से सभी काम आसान होने और अंतरिक्ष तक में अनुसंधान की नई ऊंचाई छूने के दावे किए जा रहे हैं, दूसरी ओर अमानवीय हालात में कुछ लोगों को अपनी जान जोखिम में डाल कर सीवर में घुस कर उसकी सफाई करनी पड़ रही है। क्या ऐसा इसलिए हो पा रहा है कि इस समस्या के पीड़ित आमतौर पर समाज के सबसे कमजोर तबके से आते हैं?