इस मौसम में जब शीतलहर शुरू होती है, दुनिया के बहुत सारे देश गर्मी झेल रहे हैं। पिछला महीना पिछले तीस वर्षों में सबसे गर्म नवंबर महीने के रूप में दर्ज हुआ। यह वर्ष बीतने को है, मगर तापमान बहुत सारी जगहों पर चौदह डिग्री के आसपास बना हुआ है। हालांकि भारत के कुछ पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी का वातावरण बन चुका है, मगर अधिकतर मैदानी भाग गर्मी महसूस कर रहे हैं।
बीता नवंबर पूर्व औद्योगिक काल से पौने दो डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म दर्ज हुआ। इसे लेकर दुनिया भर के पर्यावरणविदों की चिंता स्वाभाविक है। इन दिनों दुबई में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन चल रहा है। उसमें दुनिया के दो सौ वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट जारी कर चेतावनी दी कि मौजूदा वृद्धि के कारण तापमान के पृथ्वी पर जीवन के लिए जरूरी पांच महत्त्वपूर्ण सीमाओं के पार कर जाने का खतरा है।
इस रिपोर्ट में छब्बीस महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित किया गया है। देखना है कि धरती के तापमान में ताजा वृद्धि और इसे लेकर जताई जा रही चिंताओं को लेकर दुनिया के देश कितनी गंभीरता दिखाते और क्या व्यावहारिक कदम उठाते हैं। हालांकि इस बारे में फिलहाल कोई दावा करना मुश्किल है, क्योंकि पिछले अट्ठाईस वर्षों से इस सम्मेलन में इसी तरह चिंताएं जताई जाती और एहतियाती कदम उठाने के संकल्प दोहराए जाते रहे हैं, मगर कोई व्यावहारिक रास्ता अभी तक नहीं निकाला जा सका है।
जलवायु परिवर्तन के कारण स्पष्ट हैं। हर साल दुनिया के तमाम देश इस सम्मेलन में जुटते और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कटौती, औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने के वादे करके वापस लौट जाते हैं। मगर सच्चाई यह है कि हर साल वैश्विक तापमान में कुछ वृद्धि ही दर्ज होती जा रही है। मौसम का मिजाज इस कदर बदल चुका है कि कहीं चक्रवात, बेमौसम तेज बारिश, तो कहीं ठंडे कहे जाने वाले शहरों में लू के थपेड़ों से लोगों का जीना मुहाल हो रहा है।
इसका सबसे बुरा प्रभाव खेती-किसानी, बागबानी, पशुपालन पर पड़ रहा है। बहुत सारी वनस्पतियां और वन्यजीव खतरे की कगार पर पहुंच चुके हैं। भारत में इस वक्त जब गेहूं और दलहनी फसलों के लिए ठंडे मौसम और कोहरे की जरूरत होती है, तब धरती तप रही है। इससे फसलों की बढ़वार प्रभावित होगी। फिर पिछले कुछ सालों से देखा जा रहा है कि फरवरी का महीना शुरू होते ही मौसम में गर्मी लौट आती है। इस तरह फसलों में ठीक से दाने नहीं भरने पाते। इससे स्वाभाविक ही अन्न के उत्पादन पर बुरा असर पड़ रहा है।
मौसम का चक्र बिगड़ने से अनेक नए प्रकार के विषाणु पनप रहे हैं, जो स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं। वायु प्रदूषण और उससे पैदा होने वाली बीमारियों को रोकना बहुत सारे देशों के लिए बड़ी चुनौती बन चुका है। इस तरह दुनिया भर में स्वास्थ्य खर्च बढ़ा है। जिन देशों का श्रमबल अधिक समय अस्वस्थता से जूझता है, वहां के उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ता है।
इन तथ्यों से अब शायद ही कोई अपरिचित है। मगर हैरानी की बात है कि धरती पर जीवन के लिए खतरा बन चुके जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपेक्षित संजीदगी कहीं नजर नहीं आती। कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने और इसके दोषियों पर दंड के प्रावधान को लेकर अब तक कोई व्यावहारिक रास्ता नहीं बन पाया है। इसके लिए कोष बनाने पर रजामंदी नहीं हो पाई है। इस तरह तो तपती धरती को शायद ही ठंडक पहुंचेगी।