कुछ वर्ष पहले तक दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी दक्षेस या सार्क के तहत इसमें शामिल देशों के बीच आपसी साझेदारी से लेकर वैश्विक मसलों पर रुख तय करने की समझ बनती थी। मगर पिछले कुछ वर्षों के दौरान दक्षिण एशियाई देशों के बीच कूटनीतिक और अन्य मसलों पर जैसे हालात पैदा हुए हैं, उसमें धीरे-धीरे एक तरह की अघोषित दूरी बनती गई। नतीजा यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले उतार-चढ़ाव में एक अहम भूमिका निभाने वाला दक्षेस करीब एक दशक से निष्क्रिय पड़ा हुआ है।

पड़ोसी देशों से अच्छे संबंधों के लिए सार्क का पुनर्जीवन आवश्यक

समस्या यह पैदा हुई है कि इसमें शामिल देशों में अगर कोई बड़ी समस्या भी खड़ी हो जाती है तो अब आपसी सहभागिता से कोई हल निकालने या उसमें मदद करने की गुंजाइश लगभग ठप पड़ गई है। जबकि पड़ोसी देशों के बीच अच्छे संबंध या कूटनीतिक स्तर पर एक परिपक्व समझदारी कायम हो, तो किसी जटिल समस्या के समाधान की राह खोजने में मदद मिलती है।

शायद इसी को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश में व्यापक उथल-पुथल के बाद गठित अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस ने कहा है कि दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन के मकसद को बहाल करने से कई क्षेत्रीय समस्याओं का हल निकालने का रास्ता आसान हो जाएगा। इस क्षेत्रीय समूह में भारत और बांग्लादेश के साथ-साथ अफगानिस्तान, भूटान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका शामिल हैं। पहले इसकी बैठकों में इन देशों में उपजी समस्याओं और उनकी जटिलताओं पर बातचीत होती थी।

मगर इस बीच भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का असर इस संगठन पर भी पड़ा और दक्षेस की बैठक एक तरह से ठप पड़ गई। दक्षेस को फिर से जिंदा करने की बांग्लादेश की ताजा इच्छा से इतर पिछले कुछ समय से नेपाल भी इसे सक्रिय करने की कोशिश कर रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि क्षेत्रीय स्तर पर उभरने वाली परिस्थितियों के हल में दक्षेस की मजबूत भूमिका हो सकती है, क्योंकि संवाद और विमर्श किसी समस्या के हल का सबसे कारगर औजार होता है। नए बनते वैश्विक हालात में दक्षेस को पुनर्जीवित करना निस्संदेह वक्त की जरूरत है।