डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिर कर पचासी से अधिक हो गई। यह अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है। बताया जा रहा है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के अपनी नीतियों में बदलाव की वजह से ऐसा हुआ है। कोरोना के बाद दुनिया के तमाम देश मंदी की चपेट में आ गए थे। उससे उबरने के लिए सभी ने अपने-अपने तरीके से उपाय किए। अमेरिकी फेडरल ने अपनी ब्याज दरों में कटौती कर उसे साढ़े चार फीसद पर ला दिया है। इस तरह डालर की स्थिति मजबूत हुई है।
बहुत सारे निवेशकों ने भारत से पैसे निकाल कर अमेरिका का रुख कर लिया
फिर, जब से राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की विजय हुई है, निवेशकों को लगने लगा है कि वहां निवेश करना सबसे फायदेमंद है। इसलिए बहुत सारे निवेशकों ने भारत से पैसे निकाल कर अमेरिका का रुख कर लिया। इससे विदेशी मुद्रा भंडार में भी छीजन दर्ज शुरू हो गई। पिछले कुछ समय तक डालर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट लगभग रुकी हुई थी, तब विशेषज्ञों ने कहना शुरू कर दिया कि सरकार विदेशी मुद्रा भंडार से डालर की निकासी करके रुपए की कीमत को रोक रखा है। मगर अब वह तरीका भी शायद काम नहीं आ रहा।
रुपए की कीमत में गिरावट का असर व्यापार, पर्यटन, शिक्षा आदि पर पड़ता है
डालर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट का असर व्यापार, पर्यटन, शिक्षा आदि पर पड़ता है। भारत अपनी जरूरत का अधिकतर ईंधन तेल दूसरे देशों से खरीदता है। ऐसे में जब भी कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है, तो सरकार का खर्च बढ़ जाता है। इसके अलावा, दवाइयों के लिए कच्चा माल, खाद्य तेल, इलेक्ट्रानिक साजो-सामान आदि के लिए भी हम दूसरे देशों पर निर्भर हैं। विदेश पढ़ने गए विद्यार्थियों और पर्यटकों की जेब पर बोझ बढ़ जाता है। इसलिए रुपए की कीमत का गिरना चिंताजनक होता है।
रुपए की कीमत गिरने की कुछ वजहें साफ हैं। व्यापार घाटा बढ़ता है, तो डालर के मुकाबले रुपए की कीमत घट जाती है। हालांकि वर्षों से निर्यात बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, घरेलू बाजार और स्वदेशी को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है, मगर हकीकत यह है कि निर्यात में लगातार कमी देखी जा रही है। व्यापार घाटा पाटने के लिए कई विदेशी वस्तुओं के आयात पर रोक लगाने और देसी वस्तुओं को प्रश्रय देने की कोशिश की गई, इसका कुछ असर भी हुआ। मगर फिर भी व्यापार घाटा कम नहीं हो पा रहा। खासकर चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है।
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महंगाई पर काबू पाने के मकसद से रिजर्व बैंक ने लगातार रेपो दर को ऊंचा बनाए रखा है, मगर स्थिति यह है कि बाजार में पूंजी का अपेक्षित प्रवाह नहीं बन पा रहा। इसकी बड़ी वजह लोगों की आय में बढ़ोतरी न हो पाना है। इन स्थितियों का असर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर पड़ता है। जैसे ही बाहरी निवेशकों को लगने लगता है कि किसी देश में उपभोक्ता व्यय घट रहा है, तो वे वहां निवेश करने से बचते हैं।
पिछले कुछ समय से हमारी विकास दर और उसमें विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसे में डालर की आवक कम हुई है। इस स्थिति में रुपए की कीमत घटनी शुरू हो जाती है। भारत में यह सिलसिला लगातार बना हुआ है। इससे अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। सरकार अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डालर तक ले जाने को संकल्पित है, मगर रुपए की गिरावट का रुख देखते हुए इसका भरोसा नहीं बन पाता।