डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट से अर्थव्यवस्था को एक और झटका लगा है। चालू वित्तवर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद घट कर 5.4 फीसद पर आ गया। उसमें सबसे बुरी गत विनिर्माण और आठ प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों की रही। थोक और खुदरा महंगाई अपने उच्च स्तर पर बनी हुई हैं। विदेशी मुद्रा भंडार लगातार कम हो रहा है। ऐसे में डालर के मुकाबले रुपए की कीमत अब तक के सर्वाधिक निचले स्तर 84.76 पर पहुंच जाने से स्वाभाविक ही चिंता बढ़ गई है।
रुपए की कीमत गिरने का असर सीधे-सीधे आम उपभोक्ता की जेब पर पड़ता है। पहले ही लोग महंगाई की मार झेल रहे हैं, अब यह और बढ़ जाएगी। इसलिए कि कच्चे तेल से लेकर खाने के तेल, दवाओं के लिए कच्चा माल आदि बहुत कुछ बाहर से मंगाना पड़ता है, जिसका भुगतान डालर में करना पड़ता है। फिर विदेश यात्रा और विदेशों में पढ़ाई कर रहे छात्रों पर भी खर्च का बोझ बढ़ जाएगा।
लंबे समय से रुपए की कीमत में नरमी
रुपए की कीमत गिरने की बड़ी वजह फिलहाल डालर के मजबूत होने और नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ब्रिक्स देशों को डालर का उपयोग न करने पर सौ फीसद शुल्क लगाने की चेतावनी बताई जा रही है। पर लंबे समय से रुपए की कीमत में नरमी का रुख बना हुआ है। कहा जा रहा था कि सरकार विदेशी मुद्रा भंडार के जरिए इस नरमी को कम करने का प्रयास करती रही, मगर नाकाम साबित हुई है।
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इसकी एक वजह बढ़ती महंगाई है, जो रिजर्व बैंक के ऊंची रेपो दर लागू करने के बावजूद काबू में नहीं आ रही। फिर, जब से अमेरिकी डालर मजबूत होना शुरू हुआ है और ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए हैं, विदेशी निवेशकों ने भारत से अमेरिका की तरफ रुख कर लिया है। निर्यात में बढ़ोतरी लाना सरकार के सामने बड़ी चुनौती है।
मगर फिर भी हकीकत से आंखें चुराने की कोशिश ही देखी जाती है। जब केंद्र में यूपीए सरकार थी, तब भाजपा कहते न थकती थी कि रुपए की गिरती कीमत उसका इकबाल गिरने की निशानी है। मगर विचित्र है कि वह खुद इसे संभाल नहीं पा रही।