यह छिपी बात नहीं है कि दुनिया के संपन्न देश कमजोर देशों की तरक्की में बाधा बनते रहे हैं। उन्होंने हर वैश्विक मामले में अपना दबदबा कायम कर रखा है। इसकी वजह से दुनिया में कई तरह के असंतुलन दिखाई देते हैं। भारतीय विदेशमंत्री एस जयशंकर ने एक बार फिर यह बात दोहराई कि जो देश प्रभावशाली स्थिति में हैं, वे बदलाव का विरोध करते हैं।
जयशंकर अनेक मंचों पर पश्चिम के दोहरे रवैये पर खुल कर बोल चुके हैं। इस बार उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अन्य मंचों का हवाला देते हुए कहा कि वैश्विक उत्तर के देश बदलाव के पक्ष में नहीं दिखते। जिनका आर्थिक प्रभुत्व है, वे अपनी उत्पादन क्षमता का लाभ उठा रहे हैं और जिनके पास संस्थागत शक्ति है, वे कई तरह की क्षमताओं का हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
इस तरह वैश्विक दक्षिण के देश अपनी क्षमताओं का पूरी तरह प्रदर्शन नहीं कर पा रहे। वैश्विक उत्तर का अर्थ उन संपन्न देशों से है जिनमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप, इजराइल, जापान, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं। दक्षिण देशों में मुख्य रूप से एशिया और लातिनी अमेरिका के देश शुमार हैं, जिन्हें विकासशील देश कहा जाता है। इनमें भारत अगुआ है।
हालांकि वैश्विक उत्तर के देश वैश्विक दक्षिण के देशों की क्षमताओं से अपरिचित नहीं हैं। जब उन्हें लगने लगा कि बदलती वैश्विक अर्थव्यवस्था में विकासशील कहे जाने वाले देशों को अलग-थलग रख कर विकास की इबारत नहीं लिखी जा सकती, तब उन्होंने जी-7 का विस्तार करते हुए जी-20 का गठन किया था। इस बार दिल्ली में हुए जी-20 के शिखर सम्मेलन में अफ्रीकी संघ को भी शामिल कर लिया गया।
इस मौके पर दावा किया गया कि वैश्विक दक्षिण के देश ही आने वाले वक्त में वैश्विक अर्थव्यवस्था की नई तस्वीर खींचेंगे। मगर इन देशों के पास बड़ा बाजार, सस्ता श्रम और उत्पादन की विशाल संभावनाएं होने के बावजूद विकसित कहे जाने वाले देशों के दोहरे रवैये की वजह से अपना पूरा योगदान देने में सक्षम नहीं हो पा रहे। विकसित देशों के हाथ में संयुक्त राष्ट्र की कमान है।
सुरक्षा परिषद का विस्तार वे करना नहीं चाहते, इस तरह वे अपने निहित स्वार्थों के मुताबिक कमजोर देशों को दबाए रखने में सफल हो जाते हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने भी सुरक्षा परिषद में विस्तार की जरूरत रेखांकित की थी, पहले भी कई मौकों पर वे यह बात कह चुके हैं, मगर उसके स्थायी सदस्य नियम-कायदों में कोई बदलाव नहीं करना चाहते।
दुनिया के सामने कई नए खतरे पैदा हो रहे हैं। सबसे भयावह तो जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा खतरा है। हर साल जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन होता है, उसमें कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के संकल्प दोहराए जाते हैं, मगर विकसित देश खुद इसे लेकर गंभीर नजर नहीं आते। पिछली बार कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों पर मुआवजे का प्रस्ताव आया, तो वे उस पर चुप्पी साध गए।
मगर जहां भी विकासशील देशों में कार्बन उत्सर्जन रोकने की बात आती है, तो उनका दबाव बढ़ जाता है। वे विकासशील देशों में अपने उत्पाद के लिए बाजार का विस्तार तो करना चाहते हैं, मगर उन्हें उनके हितों की कतई परवाह नहीं। भारत चूंकि विकासशील की श्रेणी से ऊपर उठ कर विकसित की श्रेणी में पहुंचने की ओर अग्रसर है, इसलिए वैश्विक दक्षिण के देशों को उसी से उम्मीद है कि वह कोई बेहतर रास्ता तलाश कर सकेगा।