गर्मी के मौसम में आग लगने की आशंका अधिक बनी रहती है। खासकर जब तापमान अधिक होता है, तो बिजली के तारों के पिघल कर आपस में चिपकने और जल उठने का खतरा ज्यादा होता है। ऐसे में सार्वजनिक स्थानों और भीड़भाड़ वाले भवनों में आग लगने की स्थिति में बचाव के उपायों पर विशेष ध्यान रखने की उम्मीद की जाती है। मगर अपने व्यावसायिक हितों को सबसे ऊपर रखने वाले परिसरों में अक्सर ऐसे उपायों के मामले में लापरवाही देखी जाती है।

लापरवाही बनी जान-माल नुकसान की वजह

इसी का नतीजा है कि ऐसी जगहों पर आग लगने से बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान उठाना पड़ता है। गुजरात के राजकोट और दिल्ली के एक शिशु अस्पताल में लगी आग की घटनाएं इसका ताजा उदाहरण हैं। राजकोट के एक खेल क्षेत्र में आग लगने से बारह बच्चों समेत अट्ठाईस लोगों की मौत हो गई। दिल्ली के शिशु अस्पताल में नवजात शिशु देखभाल में रखे गए सात बच्चे मर गए और पांच गंभीर रूप से घायल हो गए। दोनों जगहों पर हादसे और इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों की वजहें समान हैं। दोनों जगहों पर आपातकालीन निकास निहायत संकरा था। अग्निशमन संबंधी अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं लिया गया था। वहां लापरवाही पूर्वक ज्वलनशील पदार्थों का भंडारण किया गया था।

चिंगारी ने कर दिया इतना बड़ा नुकसान

ऐसा नहीं कि जिन जगहों पर ये हादसे हुए, वहां के प्रबंधकों को दूसरी जगहों पर हुए हादसों की जानकारी नहीं थी, फिर भी वे सुरक्षा उपायों को लेकर इतने लापरवाह कैसे थे, समझ से परे है। राजकोट के जिस खेल क्षेत्र में आग लगी, वहां बताया जा रहा है कि लकड़ी, कपड़े, थर्मोकोल, प्लास्टिक की चादरों आदि से भवन खड़ा कर लिया गया था। नीचे की मंजिल पर बड़ी मात्रा में पेट्रोल और डीजल का भंडारण किया गया था। वहां चल रहे निर्माण कार्य के चलते कोई चिनगारी छिटकी और ज्वलनशील पदार्थों के संपर्क में आकर पूरे भवन को आग के आगोश में दे दिया।

दिल्ली के अस्पताल में भी ऐसे ही कारण पता चले हैं। नीचे की मंजिल पर गैरकानूनी तरीके से आक्सीजन के सिलिंडर भरे जा रहे थे, जिनमें विस्फोट हुआ और पूरा अस्पताल आग की लपटों में समा गया। अब इन हादसों को लेकर प्रशासन सक्रिय हुआ है, इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार माने जाने वालों को गिरफ्तार कर लिया गया है। मगर इससे फिर भी यह भरोसा नहीं बनता कि ऐसे भवनों में सुरक्षा संबंधी उपाय पुख्ता किए जा सकेंगे।

आखिर इसकी जवाबदेही कैसे तय होगी कि किसी व्यावसायिक परिसर या भवन का निर्माण करते समय उसके सुरक्षा मानकों की जांच क्यों नहीं की जाती। कैसे किसी टीन-टप्पर, लकड़ी-प्लास्टिक से बने किसी ढांचे में भीड़भाड़ वाली गतिविधियां चलाई जा सकती हैं। फिर, निजी तौर पर चलाए जा रहे अस्पतालों, बारात घर, स्कूल, होटल, रेस्तरां, बाजार, मनोरंजन स्थलों आदि में किस स्तर तक आग जैसी घटनाओं से सुरक्षा के उपायों पर गंभीरता से ध्यान दिया जाता है।

हर साल ऐसी गंभीर घटनाएं हो जाती हैं, तब प्रशासन कुछ सक्रिय दिखता है, ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाने के वादे किए जाते हैं, मगर फिर वही ढाक के तीन पात। हर ऐसे बड़े हादसे में वजहें भी एक जैसी होती हैं। आपातकालीन निकास का समुचित प्रबंध न होना, बिजली के उपकरणों का रखरखाव ठीक न होना, अग्निशमन व्यवस्था का निष्क्रिय होना आदि। हैरानी की बात है कि इस बुनियादी उपायों पर भी नजर रखने में लापरवाही क्यों बरती जाती है।