बरसात का मौसम हर वर्ष विकराल तबाही के मंजर लेकर आने लगा है। पहाड़ी इलाकों में तो हर वक्त बुरी खबर की आशंका बनी रहती है। अभी तक उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भारी बरसात से जमीन धंसने, घर, पुल, सड़कें, वाहन आदि बह जाने से सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं, सैकड़ों लापता हैं। हजारों लोग जहां-तहां फंसे हुए हैं, जिन्हें निकालने की कोशिशें जारी हैं। इसी हफ्ते केरल के वायनाड में भी भारी तबाही हो गई। भूस्खलन में पूरे के पूरे कई गांव खत्म हो गए। मरने वालों की संख्या दो सौ के करीब पहुंच रही है, बहुत सारे लोग लापता हैं। ऐसे में फिर से वही सवाल उठने लगे हैं, जो कई वर्ष से उठते रहे हैं।
पहले से ही चेतावनी का भरोसेमंद तंत्र नहीं कर पा रहे विकसित
इस मुसीबत की बरसात में सबसे प्रमुख सवाल यह उठ रहा है कि बरसात और उससे होने वाली तबाही को लेकर पहले से चेतावनी जारी करने का कोई भरोसेमंद तंत्र क्यों विकसित नहीं किया जाता, जिससे लोगों को समय रहते जोखिम वाली जगहों से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा सके। वायनाड के मामले में केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा कि वहां तीन-चार दिन पहले ही चेतावनी जारी कर दी गई थी कि बारिश से भारी तबाही हो सकती है, मगर राज्य सरकार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। मगर राज्य सरकार ने ऐसी किसी चेतावनी से इंकार किया है।
मौसम विभाग के पूर्वानुमान और चेतावनी भी विश्वसनीय नहीं रहे
अब विशेषज्ञों ने जोर देकर कहा है कि बारिश और भूस्खलन को लेकर पूर्व चेतावनी का व्यावहारिक तंत्र विकसित करने की जरूरत है। बरसात के बारे में चेतावनी मौसम विभाग जारी करता है। मगर अक्सर उसके पूर्वानुमान भरोसेमंद साबित नहीं होते। अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जब वह बरसात से होने वाले नुकसान का सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाया। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अंधाधुंध चली विकास परियोजनाओं के चलते अनेक जगहों पर पहाड़ हिल चुके हैं, उनकी मिट्टी भुरभुरी हो चुकी है।
जैसे ही तेज बरसात होती है, पहाड़ धंसने लगते हैं। उन पर बने घर, सड़कें और पुल ध्वस्त हो जाते हैं। बरसात की बदलती प्रकृति भी अब किसी से छिपी नहीं है। हिंद महासागर के गर्म होने से इस मौसम में बादल तेजी से बनते और मोटी बूंदों के रूप में बरसने लगते हैं। बादल फट पड़ते हैं। कम समय में बरसे अधिक पानी को पहाड़ झेल नहीं पाते। वायनाड के बारे में भी तथ्य छिपे नहीं थे। वहां का काफी बड़ा इलाका जोखिमभरा है। मिट्टी भुरभुरी होने की वजह से वहां भूस्खलन का खतरा हमेशा बना रहता है।
मौसम विभाग और भूसर्वेक्षण से जुड़े महकमे अगर परस्पर तालमेल कर अध्ययन करें, तो बरसात के समय होने वाले नुकसान को काफी हद तक रोका जा सकता है। जोखिम वाले इलाकों पर बारीकी से नजर रखी जाए, तो समय रहते वहां से लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के खतरे दिनों-दिन बढ़ रहे हैं। मगर उसके मद्देनजर न तो विकास परियोजनाओं का आकलन किया जाता है और न संवेदनशील जगहों पर सुरक्षा के लिहाज से एहतियाती उपाय किए जाते हैं। बरसात के समय हादसे हो जाने के बाद सब सक्रिय नजर आते हैं, जिन्हें राजनीति करनी होती है, वे उन पर राजनीति भी करते हैं। मगर इस सबके बीच जिन लोगों की जिंदगियां खत्म हो जाती हैं, जिनके घर-परिवार, मवेशी, जमीन-जायदाद नष्ट हो जाते हैं, उनकी भरपाई कभी नहीं हो पाती।