आखिरकार वही हुआ, जिसकी आशंका कांग्रेस को सता रही थी। इधर मानहानि मामले में सूरत की स्थानीय अदालत ने राहुल गांधी को दो साल कैद की सजा सुनाई, उधर लोकसभा सचिवालय ने उनकी सदस्यता समाप्त कर दी। प्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार अगर किसी सदस्य को आपराधिक मामले में दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाई जाती है, तो उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है। इस नियम के अनुसार लोकसभा सचिवालय के कदम को सही कहा जा सकता है।
सूरत की अदालत के फैसले पर चर्चा से पहले ही राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता खत्म
मगर यह सब जिस तरह आनन-फानन में हुआ, उससे नए सवाल उठने शुरू हो गए हैं। अभी इस बात को लेकर चर्चा चल रही थी कि सूरत की स्थानीय अदालत का फैसला कहां तक उचित है, कि लोकसभा सचिवालय का यह नया फैसला आ गया। हालांकि सूरत की अदालत ने फैसला सुनाने के साथ राहुल गांधी को एक महीने की मुहलत भी दी थी कि इस बीच उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और वे इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दे सकते हैं। मगर लोकसभा सचिवालय ने एक दिन की मुहलत देना भी मुनासिब नहीं समझा। ऐसे में कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों को सरकार पर नए सिरे से आरोप लगाने का एक और मौका मिल गया है।
सार्वजनिक जीवन में राजनेताओं को भाषा पर संयम रखना ही चाहिए
सूरत की अदालत के फैसले से एक बार फिर यह बात रेखांकित हुई है कि सार्वजनिक जीवन में राजनेताओं को अपनी भाषा में संयम रखना ही चाहिए। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय भी राहुल गांधी को मर्यादित भाषा के इस्तेमाल की चेतावनी दे चुका है। उत्तर प्रदेश में आजम खां भी इसी तरह अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करने की वजह से अपनी सदस्यता गंवा चुके हैं। मगर देखना है कि इन फैसलों से राजनेता कितना सबक लेते हैं।
राहुल गांधी के मामले में आए फैसले के राजनीतिक और न्यायिक निहितार्थ हो सकते हैं, पर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि आखिर राजनेताओं को अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक खुन्नस निकालने के लिए अशोभन वक्तव्य देने की छूट क्यों मिलनी चाहिए। राहुल गांधी अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जिन्होंने सार्वजनिक मंच से किसी को निशाना बना कर अपमानजनक वक्तव्य दिया। ऐसे राजनेता हर दल में हैं।
सत्तापक्ष भी इससे अछूता नहीं है। उसके कई नेताओं के बयानों को लेकर आपत्ति जताई जाती रही है, अलबत्ता उनके खिलाफ इस तरह किसी ने मानहानि का मामला दर्ज नहीं कराया। दरअसल, राजनीति में यह मान कर चला जाता रहा है कि चुनाव प्रचार के दौरान या रैलियों में सार्वजनिक मंचों से दिए जाने वाले बयानों को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए।
मगर राहुल गांधी के मामले से अब यह आशंका भी पैदा हो गई है कि कहीं सारे राजनीतिक दल इसे परिपाटी न बना लें। इस तरह उम्मीद की जाती है कि सभी राजनेता इस गंभीरता को समझ सकेंगे कि उन्हें सार्वजनिक मंचों और बयानों के वक्त भाषा की मर्यादा रखनी चाहिए। इसमें बेशक सत्तापक्ष यह कह रहा हो कि राहुल गांधी को सजा अदालत ने सुनाई है और उनकी सदस्यता नियम के मुताबिक समाप्त की गई है, मगर उस पर बदले की भावना से काम करने के आरोप लगने शायद ही बंद हों। क्योंकि सत्तापक्ष के नेता उसी समय से राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त करने की मांग कर रहे थे, जब उन्होंने लंदन में भाषण दिया था। इस तरह उनकी सदस्यता जाने से सत्तापक्ष को कितना नफा-नुकसान होगा, यह तो समय बताएगा, मगर राजनीतिक मर्यादा की रेखा तो उसके सामने भी खिंची हुई है।