अपराध और दंड के संदर्भ में एक मशहूर उक्ति का उल्लेख अक्सर किया जाता रहा है- ‘न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि वह होते हुए दिखना भी चाहिए।’ विडंबना यह है कि कई बार किसी अपराध के साबित हो जाने के बाद सजायाफ्ता दोषियों के बारे में भी सरकारों का रुख ऐसा होता है, जो समूची न्याय की अवधारणा को ही कठघरे में खड़ा कर देता है।

जाहिर है, न्याय में भरोसा करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह एक असहज करने वाली स्थिति होती है। शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो के मामले की सुनवाई करते हुए मंगलवार को गुजरात सरकार को फटकार लगाते हुए यह कहा कि जब समाज को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने वाले जघन्य अपराधों की सजा में छूट पर विचार किया जाता है तो सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि बिलकिस बानो ने गुजरात सरकार पर अपने मामले के दोषियों को समय से पहले रिहा करने का आरोप लगाया है। इस मामले पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने जो सख्त टिप्पणियां की हैं, वह न्याय के संदर्भ में सरकारी रवैये को आईना दिखाने जैसा है।

दरअसल, इस मामले में न सिर्फ एक गर्भवती महिला से सामूहिक बलात्कार किया गया, बल्कि उसके सात रिश्तेदारों की हत्या कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि हमने गुजरात सरकार को इस संबंध में सभी साक्ष्य पेश करने के लिए कहा था… हम जानना चाहते हैं कि क्या गुजरात सरकार ने अपना विवेक लगाया है; अगर हां, तो बताएं कि आपने किस सामग्री को दोषियों की रिहाई का आधार बनाया है।

हैरानी की बात यह है कि अदालत में गुजरात सरकार ने उम्रकैद के सजायाफ्ता दोषियों की रिहाई से जुड़े दस्तावेज दिखाने के आदेश का विरोध किया। जबकि अगर सरकार इस मसले पर खुद को सही मानती है तो उसे कम से कम अदालत के कहने पर पूरी पारदर्शिता जरूर बरतनी चाहिए। स्वाभाविक ही गुजरात सरकार के इस रुख पर अदालत ने एक तरह से चेतावनी देते हुए कहा कि रिकार्ड पेश नहीं किए गए तो इस मामले में कोर्ट की अवमानना के आरोप में कार्यवाही चल सकती है और अगर कारण नहीं बताए जाते हैं तो हम अपना निष्कर्ष निकाल लेंगे। सवाल है कि इतने संवेदनशील मामले में सभी दोषियों की रिहाई का फैसला करने से पहले सरकार को क्या अपने विवेक का प्रयोग करना जरूरी नहीं लगना चाहिए था!

गौरतलब है कि बिलकिस बानो के मामले में बलात्कार और हत्या की जैसी प्रकृति थी, उसकी गंभीरता के मद्देनजर सभी दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। लेकिन इस मामले के सभी ग्यारह दोषियों को पिछले साल पंद्रह अगस्त को रिहा कर दिया गया था। रिहाई के बाद सार्वजनिक रूप से इन सबका स्वागत करने की जैसी खबरें आई थीं, उसे लेकर बहुत सारे लोगों के बीच उचित ही दुख और आक्रोश फैला था।

सवाल है कि ऐसा करके इस जघन्य अपराध की पीड़ित और उनके परिजनों के साथ-साथ न्याय में भरोसा रखने वाले सभी लोगों को किस तरह का संदेश दिया गया था? एक प्रश्न यह भी है कि ऐसी रिहाई का व्यापक सामाजिक प्रभाव क्या पड़ेगा? इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की चिंता को समझा जा सकता है कि आज यह बिलकिस के साथ हुई घटना का सवाल है, कल ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि सामूहिक बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराध के दोषियों के प्रति कोई सरकार नरम रवैया अख्तियार करती है, मगर इससे न्याय की धारणा को चोट पहुंचती है।