अभी सूचना एवं प्रचार निदेशालय यानी डीआइपी ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को नोटिस भेजा है कि वे दस दिनों के भीतर सरकारी खजाने में एक सौ चौंसठ करोड़ रुपए जमा कराएं। यह नोटिस उन्हें आम आदमी पार्टी का संयोजक होने के नाते भेजा गया है। डीआइपी का आरोप है कि पांच साल पहले दिल्ली सरकार ने सरकारी धन से दूसरे राज्यों में पार्टी का विज्ञापन किया था।
इस पर आम आदमी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एक बार फिर हमलावर हो गई है। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने प्रेस वार्ता करके कहा कि केंद्र सरकार अफसरों का असंवैधानिक इस्तेमाल करते हुए दिल्ली सरकार के खिलाफ कार्रवाई को उकसा रही है। उन्होंने पूछा कि इस आरोप के पक्ष में डीआइपी के पास क्या सबूत हैं।
फिर यह भी सवाल किया है कि तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री रोज अपनी सरकारों की उपलब्धियों के विज्ञापन दिल्ली के अखबारों में छपवाते हैं, बहुत सारी जगहों पर उनके विज्ञापन-पट्ट लगे हैं, इसके लिए क्या भाजपा से रकम वसूली जाएगी। हालांकि प्रचार-प्रसार पर अनावश्यक खर्च को लेकर पहली बार वैधानिक ढंग से आम आदमी पार्टी पर कार्रवाई करने का प्रयास किया गया है, जबकि भाजपा के नेता बहुत पहले से दिल्ली सरकार के विज्ञापनों पर खर्च को लेकर सवाल उठाते रहे हैं।
विज्ञापनों पर खर्च करने के लिए हर सरकार के पास बजट में रकम निर्धारित होती है। विज्ञापनों के स्वरूप को लेकर भी नियम-कायदे बने हुए हैं। मगर यह छिपी बात नहीं है कि हर सरकार उन नियम-कायदों को तोड़-मरोड़ कर सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल अपनी पार्टी के प्रचार-प्रसार के तौर पर करने का प्रयास करती है। यही नहीं, उन विज्ञापनों के जरिए संचार माध्यमों को उपकृत और फिर उन्हें अपने पक्ष में लाने की कोशिश भी करती हैं।
विज्ञापनों के आबंटन में पक्षपात को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को दखल देनी पड़ी थी। आम आदमी पार्टी पर कई योजनाओं को लेकर आरोप लगते रहे हैं कि उनसे जितना लोभ लोगों को नहीं मिला, उससे कई गुना अधिक उनके प्रचार-प्रसार पर खर्च किया गया। सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे आमतौर पर उन्हीं योजनाओं के विज्ञापन दें, जिनसे जनजागरूकता फैलती या कोई जनकल्याण का काम होता हो। मगर सरकारें प्राय: विज्ञापनों में अपनी उपलब्धियां अधिक गिनाती देखी जाती हैं। छिपी बात नहीं है कि इसके पीछे भावना पार्टी के प्रचार की ही होती है। आम आदमी पार्टी ने भी ऐसे अनेक विज्ञापन लगातार प्रकाशित-प्रसारित कराए हैं।
मगर जब इसे लेकर नैतिकता का प्रश्न खड़ा हुआ है, तो जैसा कि दूसरे अनेक मामलों में देखा जाता रहा है, वह भाजपा को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रही है। कायदे से उसे चाहिए कि वह उन विज्ञापनों का आकलन करे, जिन्हें लेकर डीआइपी ने रकम वसूली का नोटिस भेजा है और फिर उस पर अपना स्पष्टीकरण दे। फिलहाल उसका नैतिक तकाजा यही है।
दूसरे, डीआइपी को भी स्पष्ट करना चाहिए कि उसने किन विज्ञापनों के मद्देनजर यह नोटिस भेजा और उन पर आए खर्च का आकलन कैसे किया। इस तरह लोगों को हकीकत का अंदाजा लग पाएगा और नाहक इस मामले को राजनीतिक रंग देकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का सिलसिला थमेगा। संभव है, इससे दूसरे राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों को भी कुछ सबक मिले कि सरकारी विज्ञापनों की मर्यादा क्या हो।