लंबे समय से जातीय हिंसा के दौर से गुजर रहे मणिपुर में अंतत: राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। शायद केंद्र के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। पिछले डेढ़ वर्ष से भी अधिक समय से मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को हटाने की मांग की जा रही थी, लेकिन उन पर दबाव तब बना, जब राजग की सहयोगी पार्टी एनपीपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद मुख्यमंत्री पर नैतिक दबाव बना, तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। मगर यह दुखद है कि तब तक मणिपुर के राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को गहरी क्षति पहुंच चुकी थी। इस्तीफे के बाद बीरेन सिंह के कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने रहने से भी कई विधायक नाराज थे।
वहीं नए मुख्यमंत्री के चयन के लिए सहमति न बनने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के अलावा केंद्र के पास कोई रास्ता नहीं बचा था। मगर यह अनुभव रहा है कि राष्ट्रपति शासन लगाने से किसी भी राज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम नहीं हो सकी है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके केंद्र को मणिपुर में पारदर्शी और निष्पक्ष सरकार का गठन करना चाहिए। वैसे भी राज्य में विधानसभा का कार्यकाल पर्याप्त बचा है। वह अभी भंग नहीं की गई है।
पिछले ग्यारह साल में यह पहली बार है जब केंद्र की राजग सरकार ने भाजपा शासित पूर्ण बहुमत वाले राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया है। मणिपुर में अभी विधानसभा फिलहाल निलंबित है। यानी अब राज्यपाल वहां सभी प्रशासनिक कामकाज संभालेंगे। कोई दो मत नहीं कि इससे राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होगी। सवाल है कि मणिपुर की मौजूदा स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है?
बीरेन सिंह पर इससे पहले पक्षपात के कई आरोप कुकी संगठनों ने लगाए थे। मगर उनकी एक न सुनी गई। ऐसा कहा जा रहा कि इन संगठनों ने शांति वार्ता के लिए मुख्यमंत्री को हटाने की शर्त रखी थी। इस बीच भाजपा के विधायक भी उनसे नाराज हो गए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र ने राष्ट्रपति शासन लगा कर इसी असंतोष को थामने की कोशिश की है। वहीं बीरेन सिंह के हटने से राज्य में शांति बहाली के लिए वार्ता की उम्मीद बढ़ गई हैं।