लोकसभा चुनाव के मद्देनजर जिस तरह विपक्षी दल एकजुट हुए थे और एक व्यापक आंदोलन की रणनीति बनी थी, उससे लगा था कि वह सत्तापक्ष के लिए बड़ी चुनौती साबित होगा। मगर अब जब चुनाव की घोषणा हो गई और नामांकन के पहले चरण की प्रक्रिया भी पूरी हो गई है, इस गठबंधन में त्वरा नजर नहीं आ रही है। खासकर सीटों के बंटवारे को लेकर गतिरोध पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है।

महाराष्ट्र में सीटों के बंटवारे को लेकर नहीं हुआ समझौता

दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तो सीटों को लेकर पहले ही समझौता हो गया था, मगर बिहार में गतिरोध जारी था। अब काफी मंथन के बाद वहां समझौता हो पाया है। राष्ट्रीय जनता दल छब्बीस, कांग्रेस नौ और पांच सीटों पर वाम दल चुनाव लड़ेंगे। मगर अभी महाराष्ट्र का मामला लटका हुआ है। गठबंधन में नजर आ रही यह शिथिलता किसी रणनीति का हिस्सा नहीं मानी जा सकती। इसमें राजनीतिक दलों की अपनी स्थिति को लेकर हिचक अधिक समझ आती है।

दरअसल, जिस जोशो-खरोश के साथ विपक्षी दलों ने मिल कर ‘इंडिया’ गठबंधन बनाया था, वह धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया। इस गठबंधन के अगुआ नीतीश कुमार खुद भाजपा के साथ जा मिले, फिर ममता बनर्जी ने अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी।

गठबंधन की प्रस्तावित रैलियां भी अब तक नहीं हो पाई

इस तरह दलों के अलग-अलग रास्ता अपनाने से गठबंधन की जो कुछ रैलियां प्रस्तावित थीं, वे भी अभी तक नहीं हो पाई हैं। इससे यह भी जाहिर होता है कि सीटों के बंटवारे को लेकर जो फार्मूला पहले ही तय हो जाना चाहिए था, वह अभी तक अंतिम रूप नहीं ले पाया है, जिसकी वजह से ये अड़चनें बनी हुई हैं। माना जा रहा था कि गठबंधन के दल इस फार्मूले पर सहमत हो जाएंगे कि जिस सीट पर जिसकी जीत की उम्मीद अधिक है, उस पर उसी के प्रत्याशी को उतारा जाएगा।

मगर शायद यह फार्मूला सर्वमान्य नहीं हो पाया। इसी वजह से कुछ सीटों को लेकर अभी तक खींचतान देखी जा रही है। इससे गठबंधन के बारे में गलत संदेश ही जा रहा है। सीटों के निर्धारण में जितनी देर होगी, उतना ही कम समय उन पर उतारे जाने वाले प्रत्याशियों को प्रचार के लिए मिल पाएगा। राजनीति में फैसलों के समय की भी बड़ी अहमियत होती है। सही समय पर फैसले नहीं लिए जाते, तो उसका फायदा आखिरकार विपक्षी दल को मिलता है। इसलिए गठबंधन दलों को अब ज्यादा समय तक सीटों के बंटवारे को लेकर हिचक पाले रखना या मंथन नहीं करना चाहिए।

हालांकि कई बार रणनीति के तहत भी राजनीतिक दल ऐसा दिखाने के प्रयास करते हैं कि वे कमजोर या अनिर्णय की स्थिति में हैं। इस तरह वे प्रतिद्वंद्वी की चालों को भांपने का प्रयास करते हैं। मगर गठबंधन दल अब उस दौर से आगे निकल आए हैं। सत्तापक्ष ने ज्यादातर जगहों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। उसके सहयोगी दलों के साथ समीकरण भी स्पष्ट हैं। ऐसे में अब जरूरत है, तो विपक्षी गठबंधन दलों को अपने स्थानीय स्वार्थों और पार्टी नेताओं के दबाव से बाहर निकल कर सत्ता समर के लिए कमर कसने की।

हालांकि गठबंधन के लिए इसे एक अच्छा संकेत माना जा सकता है कि सीटों के बंटवारे में देर जरूर हो रही है, पर अभी तक उनमें एकजुटता बनी हुई है। ऐसा कोई बड़ा विवाद या विद्रोह अभी तक नजर नहीं आया है। यह सत्तापक्ष के लिए अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं।