बढ़ती आबादी के मद्देनजर खाद्य सुरक्षा सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है। जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव सबसे अधिक खेती-किसानी पर देखा जा रहा है। हर वर्ष अन्न उत्पादन बढ़ाने की राह में मुश्किलें बढ़ रही हैं। ऐसे में कृषि क्षेत्र को प्रोत्साहन की दरकार महसूस की जाती रही है। केंद्रीय मंत्रिमंडल की कृषि क्षेत्र के लिए एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की दो नई परियोजनाओं को मंजूरी मिलने से स्वाभाविक ही इस क्षेत्र में कुछ बेहतरी की उम्मीद जगी है। टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने के मकसद से सरकार ने प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और कृषोन्नति योजना नामक दो नई योजनाएं शुरू की हैं।

नई योजनाओं से किसानों की किस्मत में सुधार की उम्मीद

हालांकि इस क्षेत्र के लिए पहले से कई योजनाएं चल रही हैं। कृषि कर्ज और फसल बीमा को सुविधाजनक बनाया गया है। किसानों की प्रोत्साहन राशि बढ़ा कर छह हजार से दस हजार रुपए प्रति वर्ष कर दी गई है। इनके बीच दो नई योजनाएं शुरू होने से खेती-किसानी में कुछ बेहतरी की संभावना बन सकती है। सरकार ने इस वर्ष तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया था। वह वादा पूरा तो नहीं हो पाया, पर कुछ तरक्की के संकेत जरूर मिले हैं। देखना है, नई योजनाएं इस वादे को पूरा कर पाने में कितनी और कहां तक मददगार साबित होती हैं।

सरकारी दावों के बरक्स जमीनी हकीकत कुछ अलग है। स्थिति यह है कि खेती लंबे समय से घाटे का उद्यम बन चुकी है। बहुत सारे क्षेत्रों में सिंचाई की उचित सुविधा उपलब्ध नहीं है। वहां किसानों की मानसून पर निर्भरता है। फिर, खेती में लागत काफी बढ़ गई है। बीज, उर्वरक और कीटनाशकों आदि की कीमतें बहुत सारे किसानों की पहुंच से बाहर हो चुकी हैं। फसलों के उचित दाम नहीं मिल पाते। लागत और लाभ में काफी अंतर है। कुछ फसलें लागत से भी कम कीमत पर बेचनी पड़ती हैं।

सरकार हर वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा तो करती है, मगर उस कीमत पर भी अनाज बाजार में नहीं बिक पाता। बिचौलिए उससे काफी कम कीमत पर फसल खरीदते हैं। नगदी फसल उगाने वाले किसानों को अक्सर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कभी मौसम की मार से फसलें चौपट हो जाती हैं, तो कभी बाजार में उतार और मांग कम होने के कारण उन्हें औने-पौने दाम पर फसल बेचनी पड़ती है। हर वर्ष किसानों को प्रतिरोध में फसलें सड़कों पर फेंकते देखा जाता है। इस स्थिति से पार पाने में ये योजनाएं कितनी सफल होंगी, यही उनकी कसौटी होगी।

किसान लगातार मांग करते रहे हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाए और इसके दायरे में और फसलों को लाया जाए। इस मांग को लेकर किसान लंबे समय तक आंदोलन भी कर चुके हैं। मगर इस पर सरकार का रुख सकारात्मक नहीं देखा गया। सरकार कृषि को व्यवसाय का दर्जा देने की बात सैद्धांतिक रूप से तो करती रही है, मगर व्यावहारिक स्तर पर उसकी कृषि नीतियां प्रश्नों के दायरे में बनी रही हैं। दरअसल, किसानों की समस्या तदर्थ उपायों से दूर नहीं होने वालीं। टिकाऊ कृषि के लिए व्यापक स्तर पर और व्यावहारिक उपाय करने की जरूरत है। इसके लिए उत्पादन, भंडारण, विपणन आदि खेती-किसानी के हर पहलू पर भरोसेमंद कदम उठाने होंगे। नई योजनाएं इस जरूरत को कहां तक पूरा कर पाएंगी, देखने की बात है।