अब इस बात पर उचित ही गर्व करते देखा जाता है कि सदियों से समाज के हाशिए पर डाल दी गई महिलाएं भी अपनी प्रतिभा के बल पर पुरुषों के समकक्ष खड़ी देखी जाने लगी हैं। इस क्रम में दुनिया की अनेक महिलाओं के उदाहरण दिए जाते हैं। मगर हमारे देश में अक्सर इस बात को लेकर असंतोष भी जताया जाता रहता है कि प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों के शीर्ष पदों पर महिलाएं नहीं पहुंच पातीं।
इसमें पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को भी दोषी ठहराया जाता है। मगर अब ऐसी शिकायतें भी धीरे-धीरे छंटनी शुरू हो गई हैं। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश की कतार में महिला न्यायाधीशों के खड़े होने से काफी संतोष और खुशी व्यक्त की गई। इसी क्रम में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की नई कुलपति के रूप में शांतिश्री पंडित के चयन को भी देखा जा सकता है।
वे इस विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति होंगी। चूंकि देश का यह प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, उस पर सबकी नजर रहती है। कई बार दबी या मुखर जबान में सवाल पूछे जाते रहे हैं कि क्या वहां कोई ऐसी एक भी महिला प्रोफेसर नहीं हुई, जिसे वहां का कुलपति बनाया जा सके। दूसरे विश्वविद्यालय से ही सही, शांतिश्री पंडित के इस पद पर चयन से निस्संदेह ऐसे सवाल करने वालों को कुछ संतोष मिला होगा।
विश्वविद्यालय स्वायत्तशासी संस्थान होते हैं। इसलिए किसी भी विश्वविद्यालय की साख स्वाभाविक रूप से उसके कुलपति से जुड़ जाती है। कुलपति का नजरिया ही परिसर के परिवेश में दिखाई देता है। वहां होने वाली नियुक्तियों, शिक्षा सत्र और पढ़ाई-लिखाई के वातावरण, व्यवस्था आदि में कुलपति का व्यक्तित्व ही देखा-परखा जाता है। क्योंकि आखिरकार विश्वविद्यालयों की संपत्ति वहां के अकादमिक लोग ही होते हैं।
मगर पिछले कुछ सालों से जिस तरह विश्वविद्यालयों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में नियुक्तियों आदि को लेकर गुणवत्ता से समझौता होते देखा जाने लगा है, उससे कुलपतियों की नियुक्ति पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की नई कुलपति भी विवाद से परे नहीं मानी जा सकतीं। इस पद की जिम्मेदारी संभालने से पहले ही वे अनेक बार विवादों में घिरी रही हैं।
महाराष्ट्र के सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय में वे राजनीति विज्ञान की आचार्य हैं। वहां रहते हुए उन्होंने गांधी और गोडसे प्रसंग में ट्विटर पर एक तरह से गांधी-विरोधी टिप्पणी कर दी थी, जिसे लेकर उन्हें तीखे विरोधों का सामना करना पड़ा था। इसी तरह उन्होंने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में विरोध कर रहीं, धरने पर बैठी मुसलिम महिलाओं को फिदायीन कह दिया था। कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों की अगुआई करने वाले नेताओं काे परजीवी कह दिया था।
यह ठीक है कि संविधान में सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, मगर जब समाज का कोई जिम्मेदार माना जाने वाला व्यक्ति हल्की बातें करता है, तो उस पर विरोध का स्वर उभरना स्वाभाविक है। शांतिश्री पंडित के पहले दिए गए उनके बयानों से उनकी विचारधारा और चीजों को देखने की दृष्टि का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है। इसलिए अंगुलियां सरकार पर भी उठनी लाजिमी हैं कि उन्हें क्यों इस पद की जिम्मेदारी सौंपी गई। खैर, मनुष्य के स्वभाव और सोच को लेकर उम्मीद की खिड़की कभी बंद नहीं होती। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि किसी जिम्मेदार पद पर पहुंच कर व्यक्ति के कामकाज का तरीका पहले के अपने ढंग से उलट हो जाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नई कुलपति विश्वविद्यालय की गरिमा को अक्षुण्ण रखेंगी।