तमिलनाडु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की ओर से पथ संचलन के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, वह एक तरह से लोकतंत्र का वह आम सबक है, जिसमें विभिन्न विचारों को जगह देना और आम लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी होती है। गौरतलब है कि राज्य में सैंतालीस जगहों पर निकलने वाले पथ संचलन जुलूस के मसले पर राज्य सरकार का कहना था कि वह इसके पूर्ण विरोध में नहीं है, मगर संवेदनशील इलाकों में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
सरकार का यह रुख तब भी बना रहा जब आरएसएस ने इसे लोगों के शांतिपूर्ण जमा होने के मौलिक अधिकार का हनन बताया था। तमिलनाडु सरकार के रुख को खारिज करते हुए मद्रास हाई कोर्ट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तय मार्गों से पथ संचलन निकालने की इजाजत दे दी थी। हालांकि राज्य सरकार ने अपनी दलीलों के साथ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। अब शीर्ष अदालत ने भी जिस तरह मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा, वह एक तरह से राज्य सरकार के लिए झटका है।
देश की लोकतांत्रिक परंपराओं के आलोक में देखें तो इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के रुख ने एक बार फिर राजनीतिक आग्रहों-पूर्वाग्रहों पर सोचने और उसमें सुधार का मौका मुहैया कराया है। राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले किसी संगठन के जुलूस या अन्य कार्यक्रम के आयोजन से उपजने वाली स्थितियों और उसके असर का आकलन करना सरकार की जिम्मेदारी है।
वह उसके मुताबिक उसे इजाजत देने या न देने के बारे में अपना रुख करती रही है। लेकिन अगर कोई संगठन पहले ही अपने आयोजन के शांतिपूर्ण होने का भरोसा दे रहा हो, तो उससे किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए! इसके बावजूद सरकार को परिस्थितियों के मद्देनजर कोई गैरकानूनी या अवांछित घटना होने की आशंका है, तो उसे लेकर सजग रहना और उसके मुताबिक सुरक्षा इंतजाम सुनिश्चित करना उसी की जिम्मेदारी है।
सिर्फ आशंका के आधार पर किसी आयोजन को बाधित करना एक ओर जहां लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन की स्थितियां पैदा करता है, वहीं सुरक्षा व्यवस्था तय करने के लिए जवाबदेह तंत्र की जिम्मेदारी पर भी यह एक सवाल है। इस लिहाज से देखें तो तमिलनाडु सरकार का रुख पहले भी सवालों के घेरे में था, अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद स्थिति स्पष्ट हो जानी चाहिए।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारा देश अलग-अलग विचारों, मतों और समुदायों का ऐसा ठोस समुच्चय है, जिस सबके मिलने से ही इसे मजबूती मिलती है। इसमें भिन्न विचारधाराओं को मानने वाले लोग और समूह अपने विचारों और आस्था के मुताबिक सांस्कृतिक या राजनीतिक गतिविधियां संचालित करते हैं। उससे सहमति रखने वाले लोग ऐसे किसी आयोजन में शामिल होते हैं, बाकी लोगों के लिए भी यह विचारों की भिन्नता भर होती है।
परस्पर सहयोग वाले समाज में सद्भाव आधारित आयोजन सामूहिक सामाजिक भावना को मजबूत ही करता है। सही है कि आम जनता की भागीदारी वाले सार्वजनिक समारोहों को कई बार राजनीतिक हित साधने का जरिया बना लिया जाता है और कभी-कभी असामाजिक तत्त्व उथल-पुथल पैदा करने की कोशिश करते हैं।
लेकिन ऐसे ही समय में सरकार और उसके प्रशासनिक तंत्र को सजग रह कर कानून-व्यवस्था को कायम रखने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। अगर कोई अप्रत्याशित और जोखिम की विकट परिस्थिति न हो तो किसी संगठन की गतिविधियों को सिर्फ राजनीतिक आग्रहों के आधार पर सीमित करने के बजाय सरकार को अपने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षक होने और उदार रवैये का परिचय देना चाहिए। यों भी कोई सरकार समूची जनता की प्रतिनिधि होती है और सबके प्रति समान व्यवहार उसका दायित्व भी है।