संसदीय समितियों की बैठकों में सांसदों की कम भागीदारी वास्तव में चिंता का विषय है। लोग इस उम्मीद के साथ अपने प्रतिनिधि संसद में भेजते हैं कि उनके बुनियादी हितों की बात वहां सही तरीके से रखी जाएगी। मगर लोकसभा की वेबसाइट पर जारी आंकड़ों से पता चलता है कि निचले सदन की सोलह स्थायी समितियों की बैठकों में सदस्यों की उपस्थिति औसतन महज साठ फीसद रही है। संसदीय समितियों की बैठकों में कई अहम मुद्दों पर चर्चा की जाती है और जरूरी सुधारों का खाका तैयार किया जाता है।

इसका मकसद सरकारी योजनाओं और नीतियों को बेहतर ढंग से लागू करना और सभी पात्र लोगों तक इनका लाभ पहुंचाना होता है। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि कई सांसदों के भीतर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास क्यों नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कई अवसरों पर संसदीय समिति और संसद की कार्यवाही में सांसदों की सहभागिता के महत्त्व को रेखांकित कर चुके हैं। मगर संसद की स्थायी समितियों में सांसदों के गैरहाजिर रहने का सिलसिला हैरान करने वाला है।

आमतौर पर विपक्षी दलों की यह रहती है मांग

गौरतलब है कि संसद में विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित अलग-अलग स्थायी समितियां होती हैं। कई बार सरकार की ओर से तैयार की गई योजनाओं और नई नीतियों व कानूनों का मसविदा इन समितियों के पास विचार के लिए आता है। आमतौर पर विपक्षी दलों की यह मांग रहती है कि कोई भी विधेयक सदन में पेश किए जाने से पहले विचार-विमर्श के लिए संबंधित स्थायी समिति के पास भेजा जाए। अफसोस की बात है कि इन समितियों की बैठकों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी का अहसास सांसदों में कम ही नजर आता है।

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अंदाजा इस बात से लगाया सकता है कि इस वर्ष बीस मई को विदेश मंत्रालय से संबद्ध स्थायी समिति की बैठक में केवल तेरह सदस्य उपस्थित थे, जबकि 16 मई को प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना विषय पर ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्रालय से संबद्ध समिति की बैठक में केवल बारह सदस्य मौजूद थे। ऐसे में सांसदों से यह उम्मीद स्वाभाविक है कि वे संसद में तय किए जाने वाले नियम-कायदों या बनने वाली व्यवस्था में जनता के हित में संसदीय समितियों में होने वाले विमर्श के तहत सक्रिय भागीदारी करें।