जलवायु परिवर्तन से उपजे संकट से निपटने के लिए वर्ष 2015 में वैश्विक स्तर पर पेरिस में एक महत्त्वपूर्ण समझौता हुआ था। इसका मुख्य लक्ष्य वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना था। मगर इस समझौते में जताई गई प्रतिबद्धता के अनुरूप प्रयास होते नजर नहीं आ रहे हैं।
हालांकि, विकासशील देश इस दिशा में आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं, लेकिन वित्तीय और तकनीकी चुनौतियां उनकी राह में रोड़े अटका रही हैं। इसके बावजूद भारत और चीन जैसे देश पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर शुरू हुई ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ की 30वीं वार्षिक बैठक में इन दोनों देशों की परिवर्तनकारी भूमिका की सराहना की गई। साथ ही कहा गया कि इन देशों ने जलवायु कार्रवाई को स्पष्ट तरीके से अपनाया है और वे दुनियाभर में स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की लागत कम करने में मदद कर रहे हैं।
दरअसल, पेरिस समझौते में तय हुआ था कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों की वित्तीय और तकनीकी रूप से मदद करेंगे। मगर संयुक्त राष्ट्र की हाल की एक रपट बताती है कि यह वित्तीय मदद लगातार घट रही है। विकासशील देशों को वर्ष 2035 तक अपने लक्ष्यों को पाने के लिए हर साल 365 अरब डालर की जरूरत है, लेकिन वर्ष 2023 में इन देशों को केवल 26 अरब डालर की अंतरराष्ट्रीय सहायता मिल पाई, जो वर्ष 2022 के 28 अरब डालर से भी कम है। सवाल है कि विकसित देशों ने अपने वादे के अनुसार विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करने से अपने कदम पीछे क्यों खींच लिए हैं?
हो सकता है कि इन देशों को इसमें निजी हित नजर नहीं आ रहे हों, लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में उनका योगदान सबसे ज्यादा है। इस लिहाज से विकासशील देशों की वित्तीय मदद और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाने में उनका तकनीकी तौर पर सहयोग करना विकसित देशों की नैतिक जिम्मेदारी है। इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि दशकों से इस मसले पर जताई जा रही अंतरराष्ट्रीय चिंता का हासिल अब तक कोई ठोस हल सामने क्यों नहीं ला सका है।
